पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/८४६

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स्मृत्यभावजगत्परमाकाशवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तराई ६ (१७३७) आत्मदृष्टि स्वाभाविक है, अपर लोकको यह दृष्टि यत्रकार प्राप्त होती है, अरु ज्ञानवान्को स्वाभाविक होती है, जिसको तुम इच्छा कहते हौं, सो ज्ञानवानको सब भ्रमरूप है, अनिच्छा भी ब्रह्मरूप भासती है, अरु ज्ञानवान्को आत्मानंद प्राप्त हुआ है, अपना जो शुभावसर है सदा तिसविषे स्थित है, अपर कल्पना उसको कोऊ नहीं उठती, वह विद्यमान निरावरण दृष्टिको लेकर स्थित है। इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे द्वैतैकताभाववर्णनं नाम द्विशताधिकपंचपंचाशत्तमः सर्गः ॥ २५९॥ द्विशताधिकषट्पंचाशत्तमः सर्गः २५६ स्मृत्यभावजगत्परमाकाशवर्णनम् । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी। जैसे स्वप्नविषे पृथ्वी आदिक पदार्थ भासते हैं, सो अविद्यमान हैं, कछु हैं नहीं, तैसे पिता माता जो आदि ब्रह्माजी है, तिसको भी आकाशरूप जान, वह भी कछु हुआ नहीं, आत्मसत्ताते इतर कछु उसका होना नहीं, जैसे समुद्रविषे तरंग अरु बुदबुदे उठते हैं, सो स्वाभाविक हैं, तरंग शब्द कहना भी उनको नहीं बनता, वह तौ जलरूप हैं, तैसे जिसको तुम ब्रह्माजी कहते हौ सो अपर कोऊ नहीं, आत्मसत्ताही इसप्रकार हो भासती है, ब्रह्माजी इस जगत्का विराट् है। जैसे पत्र फूल फल टास वृक्षके अंग हैं, तैसे सब भूत विराट्के अंग हैं, जो विराट् ब्रह्माही आकाशरूप है, तौ तिसके अंग जगत्की वार्ता क्या कहिये । हे रामजी ! विराटुके न प्राण हैं, न आकार हैं, न इंद्रियां हैं, न मन है, न बुद्धि हैं, न इच्छा है, केवल अद्वैत चिन्मात्रसत्ता अपने आपविषे स्थित है, जो विरा नहीं तो जगत् केसे होवै, जो तू कहे, आकाशरूपके अंग कैसे भासते हैं ? तौ ॥ हे रामजी । जैसे स्वप्नविषे बड़े पहाड पर्वत प्रत्यक्ष दृष्ट आते हैं, परंतु कछु बने नहीं, आकाशरूप हैं, तैसे आदि विराट् भी कछु बना नहीं, आकाशरूप है, तिसके अंग मैं साकाररूप कैसे हौं, सब आकार संकल्पपुरकी नाईं कल्पित है, एक आत्मसत्ताही सर्वदाकाल ज्योंकी त्यों स्थित है, तिसविषे स्मृति क्या कहिये,