पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/८४७

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(१७२८) - योगवासिष्ठ। अरु अनुभव क्या कहिये, अनुभवस्मृति भी तिसका आभास है, जैसे समुद्रविषे तरंग आभास होते हैं, तैसे आत्माविषे अनुभव अरु स्मृति भी आभास है, अरु स्मृति भी तिसकी होती है, जिसका प्रथम अनुभव होता है, सो अनुभव भी जगतविषे होता है, जहां जगत् भी उपजा न होवै तौ अनुभव, अरु स्मृति तिसकी कैसे होवे, ताते न अनुभव है न स्मृति है, इस कल्पनाको त्यागि देहुँ, जहां पृथ्वी होती है, तहां धूड भी होती है, जहाँ पृथ्वीते रहित आकाशही होवे,तहां धूड नहीं तैसेजहाँ पदार्थ होते हैं, तहां स्मृति अनुभव भी होता है, जहां पदार्थही नहीं तो यह कैसे होवै, ताते दोनोंका अभाव है ॥ राम उवाच ॥ हे भगवन् ! स्मृतिवान्विषे इष्ट स्मृतिका अनुभव तौ प्रत्यक्ष होता है, प्रथम पदार्थका अनुभव होता है, पाछे उसकी स्मृति है; तिस स्मृति संस्कारते बारे अनुभव होता है, ऐसेही भ्रमादिकका क्यों न होवे, यह तो प्रत्यक्ष भासता है, तुम कैसे इसका अभाव कहते हौ, अरु अभावविषे विशेषता क्या है ॥ वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! स्मृतिते अनुभव तहां होता है, जहां कार्यकारणभाव होता है, अरु ब्रह्माते आदि लेकर काष्ठपर्यंत जेता कछु जगत् तुझको भासता है सो सब आकाशरूप है, कछु बना नहीं, अविद्यमानही भ्रमकार विद्यमान भासता है, जैसे सूर्यको किरणों विषे जल भासता है; सो अविद्यमान है, भ्रमकरि जल भासता है, तैसे यह जगत् भ्रमकार भासता है, अरु स्मृति तिसकी होती हैं, जिस पदार्थको प्रथम अनुभव होता है,जो कहिये भ्रमादिक स्मृति संस्कारते उपजा है,तो ऐसे नहीं बनता काहेते कि प्रथम तौ ज्ञानवान्का स्मृतिते होना नहीं होता तौ तिनका स्मृति कारण कैसे कहिये, अरु द्वितीय यह है, कि इस जगत्के आदि को जगत् न था, जिसकी स्मृति मानिये इस जगतके आदि केवल अद्वितीय आत्मसत्ता थी, तिसविषे स्मृति क्या अरु अनुभव क्या, ताते ब्रह्मादिकका होना अरु जगत्का होना किसी कारणकार्यभावकार नहीं अकारण है । हे रामजी ! प्रथम तौ तुम यह देखो, कि ज्ञानीको जगत् नहीं भासता तौ स्मृति किसकी कहिये, उसको तौ केवल ब्रह्मसत्ताही भासती है,जैसे सूर्यको रात्रिकी स्मृति नहीं होती तैसे ज्ञानीको जगतुकी