पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/८४८

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स्मृत्यभावजगत्परमाकाशवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तराई ६.(१७२९) स्मृति नहीं होती, हमारे निश्चयविषै तो यह है, कि जगत् न हुआ है। न आगे होवैगा, केवल अपने आपविषे ब्रह्मसत्ता स्थित है, सो अद्वैत है, अपर सब तिसका आभास है, जो आभासको सत् जानता है, तो स्मृतिको भी सत् जान, अरु जो आभासको असत् जानता है, तौ स्मृतिको भी असत् जान, जैसे स्वप्नविषे सृष्टिका आभास होता है, तिसविषे अनुभव भी होता है, अरु स्मृति भी होती है, जागेते सृष्टि अनुभव स्मृतिका अभाव हो जाता है, तैसे परमात्मसत्ता अद्वैतके जाग्रविषे अनुभव अरु स्मृतिका अभाव है, तिसविर्षे जगत् कछु बना नहीं जैसे कोऊ पुरुष मरुस्थलविषे भ्रमकार नदी देखता है, अरु सत् जानकार उसकी स्मृति करता है, जो नहीं देखी थी सो उसके निश्चयहीविषे नहीं है, अपर कछु नदी तो नहीं, जो नदीही असत है, तौ स्मृति कैसे सत् होवे, तैसे अज्ञानीके निश्चयविषे जगत् भासा है, सो जगदही असत् है, तिसकी स्मृति अनुभव कैसे होवे, ज्ञानवान्के निश्चयविषे ऐसेही भासता है । हे रामजी । स्मृति जो होती है, सो पदार्थकी होती है, सो पदार्थ कोङ नहीं, सर्व ब्रह्मही अपने आपविषे स्थित हैं, जैसा जैसा तिसविषे ऊरणा होता है तैसाही होकार भासता है, परंतु अपर कछु वस्तु नहीं, जैसे वायु चलता भी है, अरु ठहरता भी हैं, सो चलने अरु ठहरनेविषे वायुको भेद कछु नहीं, तैसे ज्ञानवान् को जगत्के ऊरणे अफुरणेविषे ब्रह्मसत्ता अभेद भासती हैं, कारण कार्य नहीं भासता, जैसे पत्र टास फूल फल सब वृक्षके अवयव हैं, तैसे जगत् आत्माके अवयव हैं, आत्माविषे प्रगट होते हैं, बहुरि लीन भी हो जाते हैं, इतर कछु नहीं, जब चित्त स्वभाव रता है, तब जगत् होकार भासता है, कछु आरंभ अरु परिणामकारकै नहीं होता, आभासमात्र है, जैसे घट पट आदिक आत्माको आभास है, तैसे स्मृति भी आभास है, स्मृति भी जगविषे उदय भई है, जो जगही असत् है, तौ स्मृति कैसे सव होवै, अरु जो यथार्थदर्शी हैं, तिनको सब ब्रह्मरूप भासता हैं, हमको न कछु मोक्ष उपाय भासता है, न इसका कोऊ अधिकारी भासता है, हमारे निश्चयविषे अद्वैत ब्रह्मसत्ताही भासती है, जैसे १०९