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योगवासिष्ठ।

और हैं, देह और है, देहका कर्त्ता कोऊ दृष्टि नहीं आता, अरुं अहंकार करिकै वेष्टित करी है, यह जीव ऐसे मूर्ख हैं, जो देहको अपना आप जानते हैं, अरु दुःखको प्राप्त होते हैं, अरु जो विचारवान् पुरुष हैं, आत्मपदविषे स्थित हुए हैं, तिन महानुभावोंको कोऊ क्रिया दुःख बंधन नहीं कर सकती, जैसे मंत्र जाननेवालेको सर्प दुःख दे नहीं सकता, तैसे ज्ञानवान‍्को कर्म बंधन नहीं करता॥ हे रामजी! न तू शीशहै, न नेत्र है, न रक्त है, न मांस है, न अस्थि आदिक है, न मन है, न तू भूतजात है, तू चित्तते रहित चेतन केवल चिन्मात्र साक्षीरूप है, शरीरसों ममता त्यागिकरि नित्य शुद्ध सर्वगत आत्मस्वरूपविषे स्थित होहु॥

इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे देहसत्ताविचारवर्णनं नाम पंचविंशतितमः सर्गः ॥२५॥



षड्विंशतितमः सर्गः २६.

वसिष्ठाश्रमवर्णनम्।

वसिष्ठ उवाच॥ हे रामजी! इसी दृष्टिको आश्रय कर अरु भेद कष्ट दृष्टिका त्याग कर, नाश कर, जब कष्टदृष्टि नष्ट होवैगी, तब आत्मानंद प्रगट होवैगा, जिस आनंदके पायेते अष्टसिद्धिका ऐश्वर्य भी अनिष्ट जानिकरि त्यागैगा, अब अपर दृष्टि सुन, कैसी दृष्टि हैं जो महामोहका नाश करती है, अरु जो आत्मपद पाना कठिन है, सो सुखेन प्राप्त होवेगा॥ बहुरि कैसी दृष्टि है, जिसका नाश कदाचित् नहीं होता, अरु दुःखते रहित आनंदरूप में शिवजीते श्रवण करी है, पूर्ण कैलासकी कंदराविषे संसारदुःखकी शांति अर्धचंद्रधारी सदाशिवने मुझको कही थी॥ हे रामजी! महाचंद्रमाकी नाई शीतल अरु प्रकाश है जिसका, ऐसा जो हिमालय पर्वत, तिसकी कंदरा कैलास पर्वत तहां गौरीके रमणीय स्थान मंदिर हैं, तहां गंगाका प्रवाह झरणेते चला जाता है,अरु पक्षी शब्द करते हैं, अरु मंद मंद पवन सुखदायक चलता है, अरु कुबेरके मोर विचरते हैं, कल्पवृक्ष लगे हुए हैं, महा उज्वल शीतल