पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/८५०

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ब्रह्मजगर्दकताप्रतिपादनवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तराई ६. (१७३१) द्विशताधिकसप्तपंचाशत्तमः सर्गः २५७. | ब्रह्मजगदेवकताप्रतिपादनम् । राम उवाच ॥ है भगवन् ! जिसविधे सर्व अनुभ होता है, तिसके देहविषे अप्रत्यय किसप्रकार होती है, वह तौ सर्वात्मा है, तिस सर्वात्माको एक देहविषे अप्रत्यय होना यह क्योंकार होता है, अरु काष्ठ पाषाण पर्वत अरु चेतनको अनुभव किसप्रकार हो गया है, वह तौ अद्भुत स्वरूप हैं, तिसविणे जड चेतन यह दोनों भेद कैसे हुये ॥ वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी जैसे शरीरविणे हाथ आदिक अपने अंग हैं, तिन सर्व अंगोंविषे एक शरीर औरणा व्यापा हुआ है, अरु जो तिन अंगोंविषे एक अंगको पकड़कर कहै, कि नाम ले कौन है? तब वह अपनी नाम संख्या कहता है, तो तू देख कि उस एक अंगविषे अपना आप क्यों कहा, परंतु सर्व अंगोंविषे उसकी आत्मता तौ नाश नहीं हो जाती हैं, तैसे आत्मा अनुभवरूप हैं,तौ भी एक अंगविषे उसकी आत्मता फुरती है, तिसकार उसकी सर्वात्मता खंडन तो नहीं हो जाती जैसे पत्र फूल फल टास आदिक सर्व अंगविषे वृक्ष एकही व्यापा हुआ है, परंतु जो एक टास अथवा पत्रको पकड़कर कहता हैं तो कहता है, यह वृक्ष है, है तो इसके एक अंगविषे वृक्षभावना कहना, इसविषे वृक्षका सर्वात्मभाव नष्टनहीं होता, तैसेही सर्वात्मा एक देहविये अहंभाव सिद्ध होता है, जड़ अरु चेतन भी दोनों भाव एकहीके धारे हैं, एकीके दोनों स्वरूप हैं, जैसे एकही शरीरविषे दोनों सिद्ध होते हैं, हाथ पाँव आदिक जड हैं, अरु नेत्र इसका द्रष्टा चेतन है, सो एकही शरीर दोनों धारे हैं, अरु दोनों एकही शरीरका स्वरूप है, जैसे एक आत्माने दोनों धारे हैं, अझ एकहीके स्वरूप हैं, जैसे वृक्ष अपने अंगको धारता है, अरु वृक्षस्वभावको भी धारता है, तैसे सर्वात्मा सर्वको धारता है, जैसे स्वप्नसृष्टि सर्वको अनुभव धारती है, अरु सर्व क्रियाको भी धारती हैं, तैसे आत्मसत्ता सर्व जगत् अरु जगतकी सर्व क्रियाको धारती है, काहेते कि सर्वस्मा है, है सो क्यों न धारै, जैसे एकही समुद्रविषे अनेक तरंग उठते हैं,