पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/८५२

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ब्रह्मगीतापरमनिर्वाणवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तराई ६. (१७३३) उसके नेत्र हैं, मैं अरु तू यह इनते आदि लेकर जेते कछु शब्द हैं, तिन शब्दोंका अधिष्ठान ब्रह्म है,सो ब्रह्म मैहौं, कैसा हौं, जिसविषे दूसरा बना कछु नहीं, सदा मैं अपनेही आपविषे स्थित हौं हे रामजी! जेतेकछु शास्त्रके मत हैं, शून्यवादी पचरात्रिक शैवी शाक्तते आदि लेकर सो सबका अधिष्ठान ब्रह्मरूप है, सबका साररूप वही सर्वात्मरूप हैं, जैसा किसीको निश्चय होता हैं, तैसा उनको फल सर्वरूप होकर देताहैं,अपर कछु बना नहीं ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे ब्रह्मजगदेकताप्रति पादनं नाम द्विशताधिकसप्तपंचाशत्तमः सर्गः ॥ २५७ ॥ द्विशताधिकाष्टपंचाशत्तमः सर्गः २५८. ब्रह्मगीतापरमनिवणवर्णनम् ।। वसिष्ठ उवाच॥ हे रामजी । इस जगत्के आदि शुद्ध ब्रह्मसत्ता थी, तिसविषे जो जगत् आभास ऊरा है, तिसको भी तू वही स्वरूप जान, .. जैसे स्वप्न आदि अनुभव आकाश होता हैं, तिसविषे स्वप्नसृष्टि हुरि आती है, सो अनुभवरूप है, इतर कछु नहीं, तैसे यह जगत अनुभवरूप है, इतर कछु नहीं, जैसे ससुई वताकारकै तरंगरूप हो भासता है, तैसे ब्रह्मचेतनता जगतरूप हो भासती है, सो जगत् भी वहीरूप है ।। है रामजी । वास्तवते न कोऊ दुःख है, न कोऊ सुख है, दुःख अरु सुखअज्ञा नकार भासते हैं, जैसे एक निद्राविषे दो वृत्ति भासती हैं, एक स्वप्नवृत्ति अरु एक सुषुप्तिवृत्ति, तैसे अज्ञानीकी दो वृत्ति होती हैं, सुखकी अरु दुःखकी, अरु ज्ञानवान्को सर्व ब्रह्मस्वरूप है, जैसे कोऊ पुरुष स्वप्नतेजाग उठता हैं, तो उसको स्वप्नकी सृष्टि असत्रूपभासती हैं, तैसे ज्ञानवान्को यह सृष्टि असत् भासती है, जैसे मरुस्थलकी नदीके जलका अत्यंत अभाव जिसने जाना है, सो जलपानकी इच्छा नहीं करता, तैसे सम्यकुदर्शी जगद्को असत् जानता है, ताते जगत्के पदार्थकी इच्छा नहीं करता, अरु जो असम्यदर्शी है, तिसको जगत् सत् भासता है, सो किसी पदार्थको अहण करता है, किसीको त्याग करता है॥ हे रामजी।