पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/८५४

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ब्रह्मगीतापरमनिर्वाणवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तरार्द्ध ६. (१७३५) होती, यह दोनों मनकी वृत्ति हैं, जैसे एक निद्राको दो वृत्ति हैं, स्वप्न सुषुप्तिरूप, तैसे यह निर्विकल्प अरु विकल्प मनकी वृत्ति हैं, निर्विकल्प सुषुप्तिरूप पत्थरवत् अरु सविकल्प स्वप्नवत् चंचलरूप, अरु निर्विकल्प विषे भी अभाववृत्ति रहती हैं, तिसकरिभी मुक्ति नहीं होती, मुक्ति तब होती है, जब अत्यंत अभाव दृश्यका होवे तब मुक्त होवै ॥ है। रामजी ! आत्मअनुभव आकाशते इतर कछु उत्थान नहीं होता, तिसका नाम अत्यंत सुषुप्ति निर्विकल्पता है । है रामजी! ऐसे होकार तू चेष्टा भी करैगात भी कर्तृत्व अरु भोक्तृत्वका अभिमान तुझको न होवैगा, आत्माको अद्वैत जानना, जगत्को अत्यंत अभाव जानना, इसका नाम बोध है, इस. बोधकी दृढता हो और तिसके ध्यानकी दृढ़ता हो, तब उसका नाम परमपद है, उसीका नाम निर्वाण है, तिसीका नाम मोक्ष है, सो कैसा पद है, किंचन भी वही है, अकिंचन भी वही है, सर्वदाकाल अपने आपविषे स्थित हैं, तिसवित्रे न नानात्व कहना है, न अनाना शब्द है, न सविकल्प कहताहै, न निर्विकल्प है, न सत् है, न असत है; न एक है, न दो हैं, सर्वशब्दका अंत है, जिसविषे किसी शब्दकारकै वाणी नहीं प्रवर्तती, तिस सत्ताको प्राप्त होनेका उपाय मैं कहता हौं । हे रामजी ! यह मोक्षउपाय ग्रंथ मैं तुझको कहा हैं. इसको विचारना, जो पुरुष अर्धप्रबुद्ध है, जो पद पदार्थ जाननेवाला है, अरु जिसको मोक्षकी इच्छा है, सो इस ग्रंथको विचारता है, अरु शुभ आचार कारकै बुद्धिको निर्मल करता है, अरु अशुभ क्रियाका त्याग करै, तिसको शीघही आत्मपकी प्राप्ति होवेगी । हे रामजी ! जो पद मोक्षउपाय शास्त्रके विचारकार प्राप्त होता है सो तीर्थ स्नान तप दानकार नहीं प्राप्त होता, अरु तपदानादिककारकै स्वर्गको प्राप्त होता है। मोक्षको नहीं प्राप्त होता, मोक्षपद अध्यात्मशास्त्रके अर्थ अभ्यासकार प्राप्त होता है, यह जगत् आभासमात्र है, वही ब्रह्मसत्ता जगतरूप होकार भासती है, जैसे जलही तरंगरूप होकार भासता है, जैसे वायु स्पंदरूप होकार भासता है, तैसे ब्रह्म जगतरूप होकार भासता है, जैसे स्पंद अरु निस्पंदविषे वायु ज्योंकी त्यों है, परंतु स्पंद होती है तब