पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/८५५

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(१७३६) योगवासिष्ठ । भासती है, अरु निस्पंद होती है तब नहीं भासती, तैसे ब्रह्मविषे संवेदन फुरती है, तब जगत् हो भासती है, अरु जब निवेदन होती है, अंतसुख अधिष्ठानकी ओर आती है, तब जगत् समेटा जाता है, परंतु संवेइनके फुरणेविषे भी वही है, अरु अफ़रणेविषे भी वही है । ताते है रामजी ! सर्वं जगत् ब्रह्मस्वरूप है, ब्रह्मते इतर कछु बना नहीं, अरु जो इतर भासता है, सो भ्रममात्रही जानना, जब आत्मपदका आभास होवे, तब भ्रांति शांत हो जाती है, जैसे प्रकाशकार अंधकार नष्ट हो जाता है, तैसे आत्मपदके अभ्यासकार भ्रति निवृत्त होती है, यद्यपि नानाप्रकारकी सृष्टि भासती है, परंतु कछु दुई नहीं, जैसे स्वप्नविषे सृष्टि दृष्ट आती है। परंतु कछु बनी नहीं, वह अनुभवरूप आत्मसत्ता सृष्टिं आकार होकार भासती है, तैसे यह जगत् सब अनुभवरूप है, जैसे रत्न अरु रत्नके चमत्कारविषे कछु भेद नहीं, तैसे आत्मा अरु जगतविषे कछु भैद नहीं ॥ हे रामजी । तू स्वभाव निश्चय होकर देख, जो भ्रम मिटि जावै सृष्टि स्थिति प्रलय सब तिसकी संज्ञा हैं, अपर दूसरी वस्तु कछु नहीं ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे ब्रह्मगीतापरमनिर्वाणवर्णनं नाम द्विशताधिकाष्टपंचाशत्तमः सर्गः ॥ २५८ ॥ द्विशताधिकैकोनषष्टितमः सर्गः २९९. | ‘परमार्थगीतावर्णनम् ।। | वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! जेते कछु आकार तुझको भासते हैं, सो संवेदनरूप हैं, अपर कछु बना नहीं, सृष्टिके आदि भी अद्वैतसत्ता थी, अरु अंत भी वही है, मध्यविषे जो आकार भासते हैं. सो भी वहीरूप जान जैसे स्वप्नसृष्टिके आदि शुद्ध संवित होती है, तिसविषे आकार भासि आता हैं सोभी अनुभवरूप है, अपर कछु बना नहीं आत्मसचाही पिंडाकार हो भासती है, अरु जेते कछु पदार्थ भासते हैं, सो वही आकाशरूप आभासमात्र हैं, अपर कछु बना नहीं, आत्मसत्ताही सदा शुद्ध है, परंतु अज्ञानकारि अशुद्धकी नई भासती है, विकारते रहित है, ==