पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/८५६

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परमार्थगीतावर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तराई ६. (१७३७) परंतु विकारसहित भासती है, अनाना है, परंतु नानाकी नाई भासती है, आकारते रहित है, परंतु आकारसहित भासती है, जैसे स्वप्नसृष्टि अपना अनुभवस्वरूप होती हैं, परंतु स्वरूपके प्रमाकर नानाप्रकार भिन्न भिन्न हो भासती है, जागेते एक आत्मरूप हो जाती है, तैसे यह सृष्टिभी अज्ञानकारे नानाप्रकार भासती है, ज्ञानकार एकरूप भासती है, विद्यमान भासती है तौ भी असही जान, आत्मसत्ता सदा शुद्धरूप है, अरु शाँत हैं, अनंत है, तिसविषे देश काल पदार्थ आभासमात्र हैं, जो तू कहें आभासमात्र हैं, तौ अर्थाकार क्यों होते हैं, तिसका उत्तर यह है, जैसे स्वप्नविषे अंगना कंठसाथ मिलती हैं, तिसविषे प्रत्यक्ष राग होता है, विषयरस होता है, सो आभासमात्र हैं, तैसे यह जाग्रतविषे अर्थकार क्षुधाको अन्न, तृषाको जल, अपर भी सब ऐसेही होतेहैं, अरु जेते कछु पदार्थ प्रत्यक्ष भासते हैं, जो इनका कारण विचारिये तो कारण कोऊ नहीं पायाजाता जिसका कारण कोई न पाइये, सो जानिये कि आभासमात्र है । हे रामजी! यह जगत् बुद्धिपूर्वक नहीं बना, आदि जो आभास फुरा है, सो बुद्धिपूर्वक है, तिसविषे जगवसंकल्प दृष्ट भयो, तब कारणकारकै कार्य भासने लगा, परंतु जिनको स्वरूपका प्रमाद भया, तिनको कारणकरिकार्य भासने लगे, जो आत्मस्वभावविषे स्थित भये हैं, तिनको सर्व जगत् आत्मस्वरूप हैं ॥ हे रामजी ! कारणकारकै कार्य तब होवै, जो पदार्थ भी कछु वस्तु होवे, जैसे पिताकी संज्ञा तब होती है जो पुत्र होता है, अरु जो पुत्रही न होवेतब पिता कैसे कहिये तैसे कारण तब कहिये जब कार्य होवै, जो कार्य जगदही कछु नहीं तौ कारण कैसे कहिये । हे रामजी । कारण अरु कार्य अज्ञानीके निश्चयविषे होते हैं जैसे चरखेके ऊपर बालक चढता है, वह आपही भ्रमता है, तिसको सब पृथ्वी भ्रमती दृष्ट आती हैं, तैसे अज्ञानीको मोहदृष्टिकर कारणकार्यभाव इष्ट आता है,अरु ज्ञानीको कारण कार्यभाव नहीं भासता अरु स्मृति भी जगतका कारण तब कहिये जो स्मृति जगत्ते पूर्व होवै सो स्मृतिभाव अनुभव भी इस जगदविषदी फुरी है, यह भी आभासमात्र है, परंतु जिसको भासी हैं, तिसको तैसाही है । हे रामजी। स्मृति