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वसिष्ठाश्रमवर्णन–निर्वाणप्रकरण ६.

सुंदर कंदरा है, मंदारवृक्ष, तमाल वृक्ष लगे हुए हैं, तिनकेसाथ फूल ऐसे हैं, मानो श्वेत मेष हैं, तहां गंधर्व किन्नर आय गान करते हैं, देवताओंके रमणीय सुंदर स्थान हैं, तिस पर्वतके ऊपर सदाशिव विराजते हैं, त्रिनेत्र हैं, अरु हाथविषे त्रिशूल है, गणोंकरि वेष्टित हैं, अरु भगवती अर्धांगविषे विराजती है, ऐसा जो सर्व लोकका कारण ईश्वर है,सोतहां विराजता है, बहुरि कैसा है, कामदेवका गर्व नाश किया है; अरु षण्मुखसहित स्वामिकार्तिक पास प्राप्त है, अरु महाभयानक शून्य श्मशानोंविषे तिसका निवास है, तिस देवको मैं पूजत भया, तिस पर्वत ऊपर एक कालमें मैं तप करने लगा था, महापुण्यवान् एक कुटी बनाई, तिसविषे यथाशास्त्र पुण्यक्रियाकरि मैं तप करने लगा, एक कमंडलु पास राखा, वृक्षके फूल माला पूजनेनिमित्त रक्खे, जलपान करौं, फल भोजन करौं, बहुरि विद्यार्थी शिष्य साथ रहैं, तिनको पढ़ावौं, शास्त्रका अर्थ विचारौं, ब्रह्मविद्याके पुस्तकका समूह पड़ा हुआ आगे मृग अरु मृगके बालक विचरैं इसप्रकार हम कालको बितावै, वेदका पढ़ना, ब्रह्मविद्याको विचारना, अरु शास्त्रअनुसार तप करना इन गणहूँ संयुक्त कैलास वनकुनविषे हम विश्राम करैं॥ तिसके अनंतर एक कालमें एक दिन श्रावण वदी अष्टमी अर्धरात्र व्यतीत भई है, तिस कालमें समाधिते उतरकर देखता भया, दशों दिशा काष्ठ मौनवत् शांतरूप हैं, अरु ऐसा तम है, जो शस्त्रहूकरि छेदनेवाला है, अरु मन्द मन्द पवन चलता है, उसके कणका गिरते हैं, मानो पवन हाँसी करता है, तिसी समय चंद्रमा आनि उदय हुआ, महाशीतल अमृतरूप किरणोंको प्रकाशता भया, औषधिनको रससे पुष्ट करता भया, चन्द्रमुखी कमल खिलि आये, चकोर अमृतकी किरणोंको पान करने लगे, मानो चंद्रमारूप हो गये हैं, प्रातःकालविषे मणितारेकी नाई ऊपर आनि पडने लगी, अरु सप्तर्षि शीशपर आनि स्थित भये, मानो मेरे तपको देखने आये हैं, सप्तर्षि विर्षे पिछले जो तीन तारे हैं, तिनके मध्यविषे मेरा मंदिर है, तहाँ मैं सदा विराजता हौं तब चंद्रमाकरि शीतल स्थान हो गये, पवनकरि फूल गिरे हैं; अरु चंद्रमाका प्रकाश महाशीतल है, तिसकरि स्थान शीतल होगये॥ इति श्रीयोगवामिष्ठे निर्वाणप्र॰ वसिष्ठाश्रमवर्णनं नाम षड्विंशतितमः सर्गः ॥२६॥