पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/८६१

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(१७४२) यौगवासिष्ठ । सृष्टि अविद्यारूप है, सो अविद्याही चैत्य है, जब अविद्यासंबंधी होकार जगत्का अंत देवैगा, तब अंत कहूँ न आवैगा, संसरणेका नाम संसार है, जब स्वरूपविषे स्थित होवैगा, तब सब जगत् ब्रह्मरूप हो जावैगा; जगत्की कल्पना कछु न भासगी ॥ हे रामजी ! इस जगत्के आदि भी अद्वैतसत्ता थी, अरु अंत भी अद्वैतसत्ता रहैगी, मध्य जो कछ भासता है, तिसको भी वही रूप जान, अपर कछुबना नहीं, यह जगत् अकारण है, अधिष्ठानसत्ताके अज्ञानकारि भासता है, इसका नाम जगत् है, अरु इसीका नाम अविद्या है, अधिष्ठानको जानना इसीका नाम विद्या है ॥ हे रामजी ! न कोऊ अविद्या है, न जगत् है, ब्रह्मही अपने आपविषे स्थित है, कोऊ जगत् कहौ, कोङ ब्रह्म कहौ, एकही वस्तुके नाम हैं । इति श्रीयोगवासिष्ठ निर्वाणप्रकरणे ब्रह्मांडोपाख्यानं नाम द्विशताधिकपधितमः सर्गः ॥ २६० ॥ दिशताधिकैकषष्टितमः सर्गः २६१. ब्रह्मगीतावर्णनम् । राम उवाच ॥ हे भगवन् ! यह मैं जाना है कि, जगत् अकारण है, जैसे संकल्पनगर स्वप्नपुर होता है, तैसे यह जगत् है, जो अकारणही है। तो अब यहां पदार्थ काहेको उपजते इष्ट आते हैं, है सकारणरूप, कारविना तौ नहीं उत्पन्न होते भासते हैं, सो यह क्या है । वसिष्ठ उवाच॥ हे रामजी ! ब्रह्मसत्ता सर्वात्मा हैं, तिसविषे जैसा निश्चय होता है, तैसा होकार भासता है, सो क्या भासता है, अपना अनुभवही ऐसे होकर भासता है, जैसे स्वप्नविषे अपना अनुभवही नानाप्रकारके पदार्थ होकार भासता है, परंतु उपजा कछु नहीं, सर्व पदार्थ आकाशरूप हैं, तैसे यह जगत् कछु उपजा नहीं, कारणते रहित आकाशरूप हैं ॥ हे रामजी ! आदिसृष्टि अकारण हुई है, पाछेते सृष्टिविषे आभासरूप मनने जैसा जैसा निश्चय किया है, तैसाही है, काहेते जो सर्वशक्तिरूप है, अरु अदि