पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/८६५

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( १७४६ ) योगवासिष्ठ । द्विशताधिकद्दिषष्टितमः सर्गः २६२. इंद्राख्यानवर्णनम् । श्रीराम उवाच ॥ हे भगवन् ! सब जगदविषे दो प्रकारके पदार्थ हैं, एक अप्रत्यक्ष पदार्थ एक प्रत्यक्ष पदार्थ अरु एक मध्यभावी है, जैसे वायु अप्रत्यक्ष कहिये रूपतेरहित है, परंतु स्पर्श संयोगते भासती है, सो मध्य भी प्रत्यक्ष है, अप्रत्यक्ष कहिये जो किसीसाथ मिले नहीं, सो यह संवित् अप्रत्यक्ष है ॥ हे मुनीश्वर ! चंद्रमाके मंडलविषे यह संवेदन जाती हैं, अरु - वहरि गिरती है, वृत्तिचित्त कारकै चंद्रमाको देखती है, अरु वडार आती है, इससे जानी जाती है कि, निराकार है, जो साकार होती है, तौ चंद्रमारूप हो जाती, बहुरि संवेदन आती है, जैसे जलविषेजल डाराबारे नहीं निसकता, इस कारणते जानाजाता है कि, यह अप्रत्यक्ष कहिये निराकार है ॥ हे मुनीश्वर ! इस शरीरविषे जो प्राण आते हैं, जाते हैं, अज्ञानीका आशय लेकर मैं कहता हौं, सो कैसे आते अरु जाते हैं, अरु जो तुम कहो, संवित जो ज्ञानशक्ति है, सो यह शरीर अरु प्राणको लिये फिरती है; जैसे पैंडोई भारको लिये फिरता है, तैसे संवित् शरीर अरु । प्राणको लिये फिरती है, तो ऐसे कहना नहीं बनता, काहेते कि, संविव अप्रत्यक्ष निराकार हैं, सप्रत्यक्ष साकारसाथ तौ मिलती नहीं, वह चेष्टा क्योंकरि केरै अरु जो कहौ, संविद निराकारही चेष्टा कराती है, तो पुरुमकी संवित् चाहती हैं, कि पर्वत नृत्य करै, वह तो इसका चलाया नहीं चलता, अरु साथही कहते हैं, कि, यह पदार्थ उठि आदें, परंतु वह नहीं उठ आते, काहेते कि, पदार्थ साकाररूप हैं, अरु वृत्ति निराकार है, इसका उत्तर कहौ । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! शरीरविषे एक नाडी है, जब वह अवकाशरूपी होती है, तब उसमेंसे प्राणवायु निकसता है, अरु जब संकोचरूप होती हैं, तब प्राणवायु अंतर आती है, जैसे लुहारकी खल होती है, तैसे इसके अंतर पुरुष बल है, तिसकरि चेष्टा होती है। राम उवाच ॥ हे भगवन् । लुहारकी वल भी तब हलती है, जब उसके साथ बलका स्पर्श होता है, अरु स्पर्श तब होता है, जो प्रत्यक्ष वस्तु