पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/८६९

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( १७५० ) . योगवासिष्ठ हैं, अपर दूसरी वस्तु नछ नहीं, शून्य अशून्य सत् असत् सब आत्माके नाम हैं, आत्माते इतर कछु नहीं ॥ हे रामजी । जिसको मूर्ख जड कहते हैं, सो जड नहीं, सब चैतन्यरूप हैं, अरु सृष्टिकालविषे जडही है, वह संवेदनविषेजडीरूप होकरि रचित हुए हैं, वह चैतन्यही रचे हैं, जिनको अपने वास्तवस्वरूपका प्रमाद है, तिनको जड चेतन भिन्न भिन्न भासते हैं, अरु जो ज्ञानवान् पुरुष हैं, तिनको एक ब्रह्मसत्ता भासती है । हे रामजी ! यह मैं तुझको उपदेश किया है, सो वारंवार विचारने योग्य है, जो कोङ इसको नित्य विचारता रहैगा तिसके दोष घटते जावेंगे, अरु हृद्य शुद्धि होवैगा, अरु जो ब्रह्मविद्याको त्यागिकार जगवकी ओर चित्त लगावैगा, तिसके दोष बढते जावेंगे। हे रामजी ! ज्यों ज्यों इस जीवको ब्रह्मविचार उदय होता जावैगा, त्यों त्यों दुःख नाश होते जावेंगे, ज्यों ज्यों दिन होता है, त्यों त्यों तसे नष्ट हो जाता है, विचार त्यागे दुःख बढते जाते हैं, जो सहापापी हैं तिनके पाप मेरे शास्त्रका संग न करने देवेंगे, तिनको यह जगत् वज्रसारकी नई दृष्ट रहता है, संसारभ्रम निवृत्त कदाचित् नहीं होता, अरुजेता कछु जगद भासता है, सो सब आकाशरूप है, मैं तू अरु भाव अभाव आदिक जेते कछु शब्द हैं, सो सब ब्रह्मसत्ताके नाम हैं, सो कैसी सत्ता है, परम शुद्ध है, अरु निरामय है, अरु अद्वैत है, सदा अपनेही आपविषे स्थित है, अरु तिसविषे जेते पदार्थ भासते हैं, सो ऐसे हैं, जैसे शिलाविषे शिल्पी पुतलियाँ कल्पता है, सो शिल्पीके चित्तविषे होती हैं, तैसे जगत्के पदार्थकी प्रतिभा सब मनविषे हैं, सो क्या रूप है, उसका किंचनरूप है, सो किंचन कछु भिन्न वस्तु नहीं, जो सदा अपने आपविपे स्थित है, परम मौनरूप है, तिसविषे विकल्प कोऊ नहीं प्रवेश कर सकता इति ॥ श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे इंद्रास्थानवर्णनं नाम द्विशताधिकद्विषष्टितमः सर्गः ॥ २२ ॥