पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/८७०

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-50 सर्वब्रह्मप्रतिपादनवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तराई ६. (१७५१ द्विशताधिकत्रिषष्टितमः सर्गः २६३. सर्वब्रह्मप्रतिपादनवर्णनम् । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी! सर्व लोक चिन्मात्र इसीते शतरूप हैं, अरु अद्वैतरूप हैं, अज्ञानीको भिन्न भिन्न जगत् भासता है, ज्ञानीको सब निराकार आकाशरूप हैं, आकार कछु बने नहीं, आत्मसत्ता निराकार हैं, वही परम शुद्ध सत्ता इसप्रकार भासती है, सो शतरूप है, अनंत है, चिन्मात्र है, इंद्रियाँ भी ज्ञानरूप हैं, हाड माँस रुधिर हाथ पैर शिर आदिक संपूर्ण शरीर ज्ञानमात्र है, ज्ञानते इतर कछु नहीं,चिन्मात्रही इसप्रकार भासता है, जैसे स्वप्नविषेशरीरादिक अरु पहाड नदियां वृक्ष भासते हैं, सो अपनाही अनुभवरूप है, अपर कछु बना नहीं, तैसे यह जगत् सब अनुभवरूप हैं, कारणरहित कार्य भासता है, तू अपने अनुभवविषे जागिकार देख कि, सब अनुभवरूप है, आकाशविर्षे आकाश भी आकाशरूप हैं, सतविषे सत् है, भावविषे भाव है, अभीवविषे अभाव है, सर्व आत्मरूप है, इतर कछु नहीं, अरु जो तू कहे। वस्तु कारणहीते उत्पत्ति होती है, सो सत् होती हैं, परंतु जगत्का कारण कहूं नहीं पायाजाता ताते यह मिथ्या है, कारणभी इसका तब कहिये जब यह कछु वस्तु होवे; अरु कार्य भी तब कहिये जब इसका कारण सत् होवे ॥ हे रामजी! ब्रह्मसत्ता तौ न किसीका समवायि कारण है, न किसीका निमित्तकारण है, अच्युत है, इसीते समवाथिकारण नहीं अरु अद्वैत है, ताते निमित्तकारण भी नहीं, सर्व इच्छाते रहित है, तिनको कारण किसका कहिये, जो कारण नहीं, तौ कार्य किसका होवै, ताते जेता कछु जगत् भासता है, सो आभासमात्र है, उसी ब्रह्मसचाका नाम जगत् है, जैसे निद्रा एक है, तिसके दो स्वरूप हैं, एक स्वप्न, एक सुषुप्ति रूप है, ऊरणेहपका नाम स्वप्न है, अफ़रणेरूपका नाम सुषुप्ति है, तैसे दो स्वरूप चेतनके हैं, औरणेरूप चेतनका नाम जगत्, अफुरणेरूपका नाम ब्रह्म है, जैसे एकही वायुके चलना ठहरना दो पर्याय हैं, जब चलती है तब लखनेविषे आती है, अरु ठहरती है तब अलक्ष