पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/८७१

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( १७५२) योगवासिष्ठ । हो जाती है, शब्दका विषय नहीं होती, तैसे ब्रह्मसत्ता अफुरणेविषे शब्दकी प्रवृत्ति नहीं होती, जब फुरती है, तब द्रष्टा दर्शन दृश्य त्रिपुटी रूए हो भासती है, एकते अनेकरूप हो भासती हैं, अनेकते एकरूप हैं, जैसे एकही जल नदी नाला तलाब - आदिक भिन्न भिन्न संज्ञाको पाते हैं, अरु जब समुद्रविषे मिलते हैं, तब एकरूप हो भासते हैं, -जैसे एकही कालके बहुत नाम होते हैं, दिन मास वर्ष युग कल्प घटी मुहूर्त आदिक नामको पाता है, परंतु काल तौ एकही है, जैसे मृत्तिकाकी सेना हस्ती घोडे आदिक बहुत नाम होते हैं, परंतु मृत्तिका तौ एकही हैं, जैसे फूल फल टास पत्र भिन्न भिन्न नाम होते हैं, परंतु वृक्ष तौ एकहीरूप है, जैसे तरंग बुलु आवृत फेन आदिक नाम होते हैं, परंतु जल एकही है, तैसे परमात्माविषे जगत अनेकरूप नामको प्राप्त होता है, परंतु सदा एकही रसरूप है, जैसे स्वप्नविषे एकही अद्वैत अनुभवसत्ता होती है, अरु भिन्न भिन्न नामरूप हो भासती हैं, जब जागता है, तब अद्वैतरूप होता है, तैसे यह जगत् भी भिन्न भिन्न नाम रूप भासता है, परंतु आत्मसत्ता एकहीरूप है ॥ हे रामजी ! जब तू तिसविषे जागैगा, तब तुझको सब अपनेआप अनुभवही भासैगा, सो अनुभव कैसा है, केवल आत्मत्वमात्र है, अनन्य अनुभवरूप है, सो आत्मरूपी समुद्र है, तिसविषे जगरूपी जलके कणके हैं, जैसे आकाशविषे नक्षत्र फुरते हैं, तैसे आत्माविषे जगत् फुरते हैं, आकाशते तारे भिन्न हैं, परंतु आत्माते जगत् भिन्न नहीं, जलते बुन्द अभिन्न हैं ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे सर्वब्रह्मप्रतिपादनं नाम द्विशताधिकत्रिषष्टितमः सर्गः ॥ २६३ ॥ द्विशताधिकचतुःषष्टितमः सर्गः २६४. - ब्रह्मगीतागौरीबागवर्णनम् । श्रीराम उवाच ॥ हे भगवन् ! अंधकारविषे जो पदार्थ होता है, सो ज्योंका त्यों नहीं भासता अरु सूर्य का प्रकाश होता है, तब ज्योंका त्यों