पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/८७२

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ब्रह्मगीतागौरीबागवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तराई ६. (१७५३) भासता है, यह निमित्त कहता हौं जो संशयरूपी तमकारिकै जगत् ज्योंका त्यों नहीं भासता, तुम्हारे वचनरूपी सूर्यके प्रकाशकारिकै जो पदार्थ वस्तु हैं, तिसको सम्यकू ज्ञानकोरे जानौंगा ।। हे भगवन् ! पूर्व एक इतिहास हुआ है, तिसविषे मुझको संशय है, सो दूर करहु ॥ हे प्रभो। एककालमें अध्ययन शालाविष विपश्चित पंडितसों अध्ययन करता था,अरु बहुत ब्राह्मण बैठे थे, तब एक ब्राह्मण विदितवेद अरु बहुत सुंदर अरु वेदति सांख्यशास्त्रके अर्थकार संपन्न जो सबही उसके कंठविषे था अरु बडा तपस्वी ब्रह्मलक्ष्मी करिकै तेजवान् मनौ दुर्वासा ब्राह्मण हैं, ऐसा ब्राह्मण संभाविषे अया, परस्पर नमस्कार करिकै आसनपर स्थित भया, हम सबने उसको प्रणाम किया और पण्डित परस्परवेदात सांख्य पातंजलादिक शास्त्रोंकी चर्चा करते थे सो सब तूष्णीं हो गये, अरु मैं तिससों बोला कि हे ब्राह्मण ! तुम बड़े मार्ग कारकै अयेही तुम्हारा पैंडा करणा किसपरमार्थनिमित्त होता है, तुम मार्ग संगकार कहते आयेहौ सौ कही। ब्राह्मण उवाच ॥ हे भगवन् । जिस प्रकार वृत्तांत है सो मैं कहता हौं ॥ है। रामजीः। विदेह नगरका में ब्रह्मण हौं, तहाँ मैं जन्म लिया था,अरुकुंद एक बँटा होताहै, तिसका फूल चैत हैं, तिस जैसे मेरे देत, इस कारणते मैरी नाम पितामाताने कुंददंत रक्खा है, विदेह राजा जनकका जो नगर है तहाँ सों आया हौंसो कैसा नगर है,आकाशविषे जो स्वर्ग है तिसका मानौ प्रतिबिंब है अरु सबही शांतिवान् अरु निर्मलतहाँके रहने वालेहैं, तहां मैं विद्या पढने लगा तिसकरि मेरा मन उद्वेगवान हुआ कि यह संसार महाकूरबंधन है, किसप्रकार इस बंधनते छूटौं ॥ हे रामजी। ऐसा वैराग्य मुझको उत्पन्न हुआ कि, किसप्रकार शांतिमान् होऊ, तब वहाँते मैं निकसा, जो जो शुभ स्थान थे, तहां विचरने लगा, संतऋषिनके स्थान अरु ठाकुरद्वारे तिर्थ इनते आदि लेकर जो पवित्र स्थान हैं, तिनका दर्शन किया, तहते आते एक पर्वत था, तिस ऊपर मैं गया, तहां जायकार तप करने लगा, चिरपर्यंत मैं तप किया,बहुरि वहांते एकांतके निमित्त आगे चला, तह एक आश्चर्य देखा,सो कहता हौं ॥ हे रामजी! मैं वहाँते चला आता था, जो वडा वन है, अरु बहुत श्याम है, मानौ आकाशकी मूर्ति है,