पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/८७३

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( १७५४ ) योगवासिष्ठ । शून्य अरु तमरूप है, तिस वनविषे एक कोमल वृक्ष मुझको दृष्ट आया, जिसके पत्र हैं, अरु सुंदर दास हैं, तिसके साथ एक पुरुष लटकता है, पांविषे मुंजका रस्सा हैं, वृक्षसाथ बाँधा हुआ है, शीश नीचे अरु चरण ऊपरको दोनों हाथ छातीपर जुडे हुये, अरु लटकता है, तब मैंने विचार किया कि, यह मृतक न होवै, इसको देखौं, जब मैं निकट गया,तब उसके - श्वास आते जाते देखे, अरु शरीर युवा अवस्था कांतिवारी हुई,अरु अंतरते सबका ज्ञाता शीत उष्ण अरु अंधेरी मेघको सह रहाहै,जानता सबको है, परंतु सहि रहा है । हे रामजी । तब मैं जानत भया कि, यह तपस्वी है, इसकी बडी शूरवीरता हैं, तब मैं उसके निकट बैठि गया,अरु उसके चरण जो बांधे हुये थे, तिनको कछु ढीला किया, बहुरि उससे मैंने कहा ॥ हे साधो । ऐसी क्रूर तपस्या तू किसनिमित्त करता है, अपना वृत्ताँत सुझको कहु ॥ हे रामजी ! जब इसप्रकार मैंने कहा तब वह नेत्रको - खोलिकै कहत भया॥ हे साधो ! यह तप मैं किसी अपनी कामनाके अर्थ करता हौं, सो ऐसी कामना है, जो तुम सुनौगे तब हांसी करोगे। हे रामजी। जब इसप्रकार उसने कहा, तब मैंने कहा ॥ हे साधो ! कछु हाँसी न करौंगा तू अपना वृत्तांत कहु, अरु जो तेरा कछु कार्य होवैगा, अरु मुझसों होवैगा सौ मैं कौंगा, जब मैंने इसप्रकार वारंवार कहा,तब उसने कहा, मनको उद्वेगते रहित करिकै सुन,मैं कहता हौं। हे साधो । मैं ब्राह्मण हौं, अरु मथुराविषे मेरा जन्म है, तहाँ जब बाल अवस्था मेरी व्यतीत भई, अरु यौवन अवस्थाका आदि हुआ, तब वेद अरु शास्त्रको मैं भली प्रकार जाना, तब एक वासना आनि उदय भई कि, सबते बड़ा सुख राजा पता और भोगता है, ताते मैं राजा होऊ, अरु सुख भोगौं कि, क्या सुख है, अपर सुख मैंने भोगे हैं, बहुरे विचार किया कि, राज्यका सुख तब भोगौं, जब राजा होऊ,सो राजा क्योंकार हो, राज्य तब होता है, जब तप करता है, तोते मैं तप करा ॥ हे साधो । ऐसे विचार कर मैं तप करने लगा हौं, द्वादश वर्ष व्यतीत भये हैं, अरु आगे भी कराँगा, जबलग सप्तद्वीपका राज्य मुझको नहीं प्राप्त होता, तबलग तप कराँगा, यही निश्चय मैंने धारा है,मेरा शरीरही नष्ट हो गया,