पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/८७४

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ब्रह्मगीतागौरीबागवर्णन-निर्वाणकरण, उत्तरार्द्ध ६. ( १७५५ ) अथवा सप्त द्वीपका राज्य मुझको प्राप्त भया, यह मेरा निश्चय है, सो मैंने तुझको कहा है, अब जहाँ जानेकी तुझको इच्छा होय तहाँ जावडु॥ हे रामजी । इसप्रकार कहकर उस तपस्वीने बहुरि नेत्रे मुँदिकार चित्त स्थिर करनेको समाधानकार इंद्रियकारि विषयका त्याग कर मन निश्चल किया, तब मैंने उससे कहा ॥ हे मुनीश्वर । मैं भी तेरे पास बैठा हौं, जबलग तेरे ताँई वाकी प्राप्ति नहीं होती, तबलग मैं तेरी टहल कराँगा, मेरे ताई तेरे ऊपर दया आई है ॥ हे रामजी ! इसप्रकार मैं उससे कहकर पट्मासपर्यंत मैं उसकेपास बैठा रहा, उसकी रक्षा करत रहा, जब धूप आवै तब छाया करौं, आंधी मेघविषे अपने शरीरको कष्ट देके रक्षा करौं, उद्वेगते रहित पद्मास जब बीते, तब सूर्यके मंड़लतै एक पुरुष निकसा, बडा प्रकाशवान् जैसे विष्णु भगवान्का तेज है, तैसे तेजवान् भासिकार हमारे निकट आया, तिसको देखकर मैंने मन वाणी शरीर तीनोकार पूजा करी, तब इस पुरुषने कहा ॥ हे तपस्वी! अब इस तपको त्याग, अरु जो कछु इच्छा है सो माग, तेरी इच्छा तो यही है, कि मैं सप्तद्वीपका राजा होऊ, सो तू सप्तद्वीप पृथ्वीका राजा होवैगा, अरु सप्तसहस्र वर्षपर्यंत राज्य करेगा, परंतु अपर शरीरसाथ होवैगा ॥ हे रामजी! इसप्रकार कहिकर वह पुरुष सूर्यके मंडलविषे अंतर्धान हो। गया, जैसे समुद्रते तरंग निकसकर लय हो जावें, तैसे लीन भया, तब उसको मैंने कहा ॥ हे ब्राह्मण ! अब क्यों तू संकट लेता है, जिस निमित्त तू तप करता था सो वर तो तुझको प्राप्त भया, अब क्यों संकट करता है । हे रामजी ! जब इसप्रकार मैंने कहा, जो सूर्यके मंडलते एक पुरुष बडा तेजवान् निकसकर तुझेको वर दे गया है, तब नेत्र खोले, अरु मैं उसके चरणोंसों रसड़ी खोली, तब उसका तेज बडा हो गया, उसके शरीरकी कांति प्रकाशवान् भई, तब निकट एक जलते रहित तालावथा उसके पुण्यकरि वह भी जलसों पूर्ण हो गया तिसविषे हम दोनोंने स्नान किया बहुर मंत्रपाठ किया, अरु संध्याकार बहुरि हम दोनों वृक्षके नीचे आये, जो वृक्ष फलते रहित था, सो फलकार पूर्ण हो गया उसकी पुण्यवासनाकरिके उन फलनुका भक्षण किया, तीन दिनपर्यंत वहां रही