पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/८७८

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ब्राह्मणकथावर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तरार्द्ध ६: (१७५९ ) निमित्त निकसे थे, इनकी स्त्रियोंने विचार किया कि, हमारे भर्ती तौ तप करने गये हैं, हम भी जाय तप करें, तिन आठने तप आरंभ किया, सो सौ चौद्रायण व्रत तिनने करे, महाकृश जैसे शरीर हो गये, जैसे वसंत ऋतुकी मंजरी ज्येष्ठ आषाढविषे कृश हो जाती है, तैसे वह हो गईं, एक भर्ताका वियोग दूसरा तपकर कृश हो गईं, तब पार्वती वागीश्वरी प्रसन्न भई अरु कहा कछु वर माँगहु, जैसे मेघको देखिकार मोर प्रसन्न होकर बोलता है, तैसे वह प्रसन्न होके बोलीं ॥ हे देवतोंकी ईश्वरी । हम यह वर माँगती हैं, कि हमारे भर्ता अमर होवें, जैसे तेरा अरु शिक्का संयोग हैं, तैसे हमारा भी होवे, तब भवानिने कहा ॥ हे सुभद्रे ! इसशरीरकर तो अमर किसीने नहीं रहना, आदिजो सृष्टि हुई है, तिसविषे नीति हुई है, जो शरीरकर किसीने नहीं रहना, जेता कछु जगत् देखाजाता है, सो सब नाशरूप है, कोऊ पदार्थ स्थित नहीं रहता, अपर कछु वर मांगौ, तब उन ब्राह्मणियोंने कहा ॥ हे देवी । भला जो जो हमारे भर्ती मेरै तौ इनके जीव हमारे गृहविषे हैं इनकी संवित् बाहर न जावें तब वागीश्वरीने कहा, ऐसेही होवैगा, उनके जीव तुम्हारेही घरविषे रहेंगे अरु उनको जो लोकतिर भासैगा, तिससाथही तुम भी उनकी स्त्री होकार स्थित होवोगी, ऐसे कहकार अंतर्धान हो गई ॥ कुंददंत उवाच ।। हे रामजी । इसप्रकार सुनकर मैं आश्चर्यवान् हुआ, बहुरि मैंने कहा ॥ हे मुनीश्व ! तुझने आश्चर्यकथा सुनाई है कि, आठौं भाईने एकही वर पाया; सप्तद्वीप पृथ्वीका एकही पृथ्वीविषे तिन सबको राज्य क्योंकार प्राप्त होगा । हे रामजी! जब इसप्रकार उसको मैंने कहा, तब कदेबतया कहत भया । हे साधो ! यह क्या आश्चर्य है, अपर आश्चर्य सुन ॥ हे ब्राह्मण ! जब यह आठौं भई तपके निमित्त घरते निकसे थे, तब इनके जो पिता माता थे, तिनने विचार किया कि, हमारे पुत्र तप करने गये हैं, हम भी उनके निमित्त जाय तप करें, उनकी स्त्रियां साथ लेकर तीर्थ अरु ठाकुरद्वारे दिखावते फिरे, दिखाइके उन्होंने एकांत बैठि कार तप किया, तब कृच्छु-चांद्रायण कारकै देवीको प्रसन्न कीनी, अरु वर लेकर अपने घरको आने लगे, तब एक स्थानविषे दुर्वासा ऋषीश्वर