पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/८७९

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(१७६०) योगवासिष्ठ । बैठा था, जैसा दुर्बल जैसे अंग तिसके अरु विभूति लगाई हुई, अरु बडी जटा खुली हुई, तिसको देखकर पासतेही लंचकार चले गये, तिसको नमस्कार न किया, तब उसने कहा ॥ हे ब्राह्मण ! तु क्यों दुष्ट स्वभाव कारकै हमारे पाससे चला गया; हमको नमस्कार भी न किया। अब तेरे वर निवृत्त होवेंगे, जो तुमको प्राप्त हुआ है; सो न होवैगा, विपरीत हो जावैगा, तब उनने कहा ॥ हे मुनीश्वर ! यह वचन कैसे कहते हौ, हमारे ऊपर क्षमा करो, यह ऐसेही कहते रहे कि वह अंतर्धान हो गया, तब ऐसे सुनकर यह अपने गृहविषे शोकवार होकर आय स्थित भये ॥ तौ हे ब्राह्मण ! तू देख कि, जबलग आत्मबोधते शून्य है, तबलग अनेक दुःख उपजेंगे, कई प्रकारके आश्चर्य भासँगे, संदेह दूर न होवैगा अरु जब आत्मबोध हुआ तब कोङ संशय आश्चर्य न भासैगा ॥ हे ब्राह्मण ! यह सब चिदाकाशविषे मायामात्रही रचना बनती ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे ब्राह्मणकथावर्णनं नाम द्विशताधिकपंचषष्टितमः सर्गः ॥ २६६ ॥ • द्विशताधिकषट्षष्टितमः सर्गः २६६. | ब्राह्मणभविष्यद्राज्यप्राप्तिवर्णनम् । कुंददंत उवाच ।। हे भगवन् । मैं यह सुनिकर आश्चर्यवान हुआ हौं, अरु एक संशय उत्पन्न हुआ है, सो निवृत्त करौ, तुमने कहा, इकठे एक द्वीपविषे आठौ सप्त द्वीपके राजे होवैगे, द्वीप तौ सप्त एकही अरु राज्य करनेवाले आठ, यह कैसे राज्य करेंगे, अरु इनने वर भी पाया, अरु शाप भी पाया, यह इकट्टे क्योंकार होवेंगे, जैसे धूप अरु छाया इकट्ठी होनी आश्चर्य है, जैसे दिन अरुरात्रि इकड़े होने कठिन हैं, तैसे वर अरु शाप एक होने कठिन हैं ॥ कदंबतपा उवाच ॥ हे साधो! जो कछु इनकी भविष्यत् होनी है, सो मैं कहता हौं, जब केतक काल गृहस्थविषे व्यतीत होवैगा, तब इनके शरीर छूटते जावेंगे, क्रमकरिके आठके शरीर छूटेंगे, इनको कुटुंबी जलावेंगे, इनकी पुर्यष्टका अनुभवसाथ मिली हुई एक