पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/८८

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रुद्रवसिष्ठसमागमवर्णन–निर्वाणप्रकरण ६.

है, चलो हम तुम्हारे आश्रमको चलै हैं॥ हे रामजी! फूलके स्थानविषे सदाशिव बैठे थे, सो ऐसे कहिकरि उठि खड़े हुए, तब इकट्ठे अपने आश्रमपरि कुटीविषे आनि स्थित हुए, तहां मैं बहुरि पुष्प अर्घ्यकरि चरणोंकी पूजा करी, बहुरि हाथकी पूजा करी, इसीप्रकार चरणोंते लेकरि शीशपर्यंत सर्व अंगकी पूजा करी, बहुरि तैसेही गौरी भगवतीका पूजन किया, सखियोंका पूजन किया, बहुरिगणोंका पूजन किया॥ हे रामजी! इसप्रकार भक्तिपूर्वक जब मैं पार्वती परमेश्वरका पूजन करिचुका, तब शशिकलबारी शीतल वाणीकरि मुझको कहत भया॥ हे ब्राह्मण! नानाप्रकारकी चिंतवनेहारी जो चित्तकी वृत्ति है, सो क्या तेरे स्वरूपविषे विश्रांतिको प्राप्त भई है, अरु क्या संवित‍्तेरी आत्मपदविषे स्थित भई है,अरु तुम्हारेशिष्यको कल्याण तौ है, अरु तुम्हारेपासजो हरिण विचरते हैं, यह सुखसे तो हैं, अरु क्या मंदारवृक्षतुमको पूजाके निमित्त फूल फल भलीप्रकार देते हैं, अरु मंदाकिनी जो गंगा है, सो क्या तुमको भलीप्रकार स्नान कराती है, अरु देहके इष्ट अनिष्टकी प्राप्तिविषे तुम क्या खेदवान नहीं होते अरुइस पर्वतविषेकुबेरके अनुचर यक्ष राक्षस रहते हैं, सो तुमको दुःख तौ नहीं देते, अरु मेरे गण जो चक्षु निशाचर हैं, वह भी तुमको कष्ट तौ नहीं देते॥ हे रघुनंदन! इसप्रकार जब देवेशने मुझसे वांछित प्रश्न कहे, तब मैं उनसे कहत भया॥ वसिष्ठ उवाच॥ हे महेश्वर! जो कल्याणरूप तुझको सदा स्मरतेहैं, तिनको इस लोकविषे ऐसा पदार्थ कोई नहीं, जो पाना कठिन होवै, अरु भय भी किसीका नहीं, जिनका चित्त तुम्हारे स्मरणकरि आनंदसों सर्व ओरते पूर्ण भया है, सो जगत‍्विषे दीन नहीं होते, तेई देश तेई जनोंके चरण अरु दिशा पर्वत वंदना करने योग्य हैं, जहां एकांतबुद्धि बैठिकरि तुम्हारा स्मरण करतेहैं॥ हे प्रभो! तुम्हारास्मरण पूर्वपुण्यरूपी वृक्षका फल है, अरु वर्तमान कर्मोंकरि सिंचता है, तुम मनके परममित्र हो, सर्व आपदाका हरणेहारा तुम्हारा स्मरण है, सर्व संपदारूपी लताके बढावनेहारे तुम्हारा स्मरण वसंतऋतु है॥ हे प्रभो! बड़ी महिमा अरु बड़ेते बड़े कर्मों के कारणका कारण तुम्हारा स्मरण है॥ हे प्रभो! विवेकरूपी