पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/८८३

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( १७६४) योगवासिष्ठ । समद्रके मार्ग पातालविर्षे नागको जीतने जावैगा, अरु चौथा एक द्वीप विषे अपनी स्रीसाथ शांत हो जावैगा, अरु एक राजा शाल्मलिद्वीपविषे स्थित होवैगा, तहाँ स्वर्णकी पृथ्वी है, बड़ी प्रकाशसंयुक्त है, तिस द्वीपविषे एक पर्वत होवेगा, तिसके ऊपर एक ताल होवैगा, तिस तालविषे विद्याधरीसाथ लीला करता फिरैगा, अरु पंचम एक क्रौंचद्वीपविषे राजाहोवैगा, दिग्विजय कारकै आवैगा, तिसकी जो प्रजा होवैगी सो बड़ी धर्मात्मा मानसी पीड़ाते रहित होवैगी, अरु एक गोमेदक नाम द्वीपविषे होवेगा, तिसका युद्ध पुष्करद्धीपवाले के साथ होवैगा, अरु एक पुष्करद्वीपका राजा होवैगा, सो गोमेदकवाले राजासाथ युद्ध करैगा । हे कुंद देत ! इसप्रकार वह सृष्टि अपने अंतःपुरविषे देखेंगे; अरु राज्य भोगेंगे परम्पर उनकी सृष्टि अदृश्य होवैगी, अरु राजधानी भी सबकी मैं तेरे तांई कही, एककी जंबूद्वीप उज्जयिनीविषे, एककी शाकद्वीपविषे, एककी कुशद्वीपविषे, एककी क्रौंचद्वीपविष; एककी शुष्करद्वीपविषे, एककी गोमेदकद्वीपविषे, एक लोकालोक पर्वत स्वर्ण पृथ्वीविषे ।। हे साधो । इसप्रकार उनकी भविष्यत होनी हैं, सो मैं सब तुझको कही है, अरु जैसा इसके अंतर निश्चय होता है तैसाही इसको फल होता है, बाह्य यह कैसीही क्रिया करै, अरु अंतर इसके सत्ता नहीं होती, तब वह फलदायक नहीं होती, जैसे नट स्वांग बनाय करि चेष्टा करता है, परंतु उसके अंतर उसका सद्भाव नहीं होता, इसकार वह फलदायक नहीं होती, अरु पुत्रविषे अंतर उनकी ओर चित्त लगा रहताहै तौ अंतभवनाकार वह परे पुष्ट होते हैं । हे साधो ! जैसा इसके अंतर निश्चय होता है सोई वग्दायक होता है, ताते निश्चय परमार्थका कारण योग्य है। इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे ब्राह्मणभविष्यद्राज्यप्राप्तिवर्णनं नाम द्विशताधिकषट्षष्टितमः सर्गः ॥ २६६ ॥