पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/८८४

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कुन्ददन्तीपदेशवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तरार्द्ध ६. (१७६५) दिशताधिकसप्तषष्टितमः सर्गः २६७. कुन्ददन्तोपदेशवर्णनम् । ॥ कुंदेत उवाच ॥ हे मुनीश्वर । सुझको संशय बडा प्राप्त हुआ है, जो उसी अंतःपुरविषे अपने अपने सब द्वीपका राज्य करेंगे सो कैसे होवैगा १ ॥ ॥ कदंबतपा उवाच ॥ हे साधो । जेते कछु जगत् तुझको दृष्ट आता है, सो कछु बना नहीं, शुद्ध चिन्मात्रसत्ता अपने आपविषे स्थित है,उनको जो अंतःपुरविषे अपनी अपनी सृष्टि भोसैगी सो क्या रूप है, उनका जो अपना अनुभव है सोई सृष्टिरूप हो भासैगा, आपही सृष्टिरूप अरु आपही राजा होवेंगे, यह जो कछु जगते तुझको भासता हैं, सो भी परब्रह्म है, इतर कछु नहीं, जैसे समुद्रविषे तरंग स्वाभाविक फुरते हैं, सो जलहीरूप हैं; अरु लीन होते हैं; सो जलहीरूप हैं, जलते इतर कछु नहीं, न कछु उपजा है, न मिटता है, तैसे ब्रह्मविषे जगत् उपजता अरु लीन होता है, ब्रह्मते इतर कछु नहीं, ताते वह ब्राह्मण भी अजरूप है, अपने आपको ऊरणेकारकै जगवरूप देखेंगे । ॥ हे साधो ! जब सुषुप्ति होती है, तब अद्वैत अपनाही अनुभव होता है, बहुरि तिसविषे स्वप्नकी सृष्टि फुर आती हैं, सो क्यारूप है, वहीं सुषुप्तिरूप है, तैसे परम सुषुप्तिरूप जो आत्मा है, जहां सुषुप्ति भी लीन हो जाती है, तिसविषे यह जगत् फुरता है, सो वहीरूप है, आधार आधेयते रहित. ब्रह्मसत्ता अपने आपविषे स्थित है ॥ है साधो ! जैसे एकही मंदिरविषे बहुत पुरुष शयन करें, उनको अपने अपने स्वकी सृष्टि भासती है, तो कछु आश्चर्य नहीं, तैसे उनको अपनी अपनी सृष्टि भासैगी, इसविषे क्या आश्चर्य है, जो कछु जगत् भासता है, सो ब्रह्मविषे है, अरु ब्रह्मरूपही अपने आपविषे स्थित है ॥ कुंददंत उवाच ।। हे भगवन् । आत्मसत्ता तौ एक है, अरु केवल है, जिसविषे एक कहना भी नहीं, परम शतरूप शिवपद है, अरु अद्वैतरूप है, तौ नानाप्रकार क्यों भासती है, यह तौ स्वभावसिद्ध हैं, सो नानात्व होकार वास्तव क्यों भासती है। ॥ कदंबता उवाच ॥ हे साधो ! सर्व शतरूप है,अरु चैतन्य