पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/८८५

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६. १९७६६), योगवासिष्ठ । आकाश है, नानाप्रकार जो भासती है, सो अपर कोऊ नहीं, आत्मससाही अपने आपविषे स्थित है, जैसे स्वप्नसृष्टि भासती है सो बनी कछु नहीं, अपना अनुभवही सृष्टिरूप हो भासता है, तैसे यह जगत् अनुभव रूप है॥ हे साधो! सृष्टिके आदि अद्वैत आत्मसत्ता थी, तिसविषे जो जगव भास आया सो भी तुवहीरूप जानहु, जैसे समुद्रही तरंगरूप हो भासता है, तैसे आत्मसत्ता सृष्टिरूप हो भासती है, जैसे पुरुष स्तंभते रहित स्थानविषे सोया है, तिसको बहुत स्तंभसंयुक्त मंदिर भास आया तौ क्हां बना तौ कछु नहीं, अनुभव आकाशही स्तंभरूप हो भासताई, तैसे जो कछु जगत् तुमको भासता है, सो अपने अनुभवरूप जानडु,जैसे आकाशविषे शून्यता है, जैसे अशिविषे उष्णता है, जैसे बर्फविषे शीतलता है, तैसे आत्माविषे जगत है, कोऊ जगत् कहौ कोऊ ब्रह्म कहौ, ब्रह्म अरू जगविषे भेद कछु नहीं, जैसे वृक्ष अरु तरु एकही वस्तु हैं, तैसे ब्रह्म अरु जगत् एकही वस्तुके दो नाम हैं, इस जगत् अरु इंद्रियां मनते अतीत आत्माको जानहु,अरुजो इन तीनका विषय है, सो भी आत्माको जानडु, अपर दूसरी वस्तु कछु नहीं, अरु नानारूप जो दृष्ट आता है सो नानात्व नहीं भया, दूसरा नहीं भासता है, जैसे स्वप्नविषे बडे आरंभ दृष्ट आते,सैना अरु नानाप्रकारके पदार्थ भासतेहैं,परंतु कछु हुई नहीं, तैसे वही जगत् नानाप्रकार भासता है, परंतु कुछ हुआ नहीं, सर्व चिदाकाशरूप है, जैसे एक निद्राको दो वृत्ति हैं, एक स्वप्न एक सुषुप्तिरूप, स्वप्नविषे नानात्व भासती है, अरु सुषुप्तिविषे एकसत्ता होती है, तैसे चित्तसंवितके फुरणेविषे नानात्व भासता है, अरु अफुरणेविषे एक है ॥ हे साधो! सर्वदा कालविषे एकरूप है, परंतु प्रमादकरके भेद भासता है, जैसे स्वप्नसृष्टि अपनाही अनुभवरूप है, परंतु प्रमाकरिकै भिन्न भिन्न भासती है, तैसे यह जगत् है, हमको तौ सर्वदा काल वही भासताहै, जैसे पत्र फूल फल टास एकही वृक्षके नाम हैं, जो वृक्षका ज्ञाता है, तिसको सब वृक्षरूप भासता है, तैसे सर्व नामरूपकार हमको आत्माही भासता है, आत्माते इतर कछु नहीं भासता, आदि ऊरणेविषे जैसे निश्चय हुआ है, सो अपर निश्चयपर्यंत तैसेही रहता है, यह सब विश्व संकल्परूप है, संकल्पका