पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/८८६

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कुन्ददन्तोपदेशवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तरार्द्ध ६. (१७६७) अधिष्ठान ब्रह्म है, ब्रह्मही संकल्परूप होकार भासता है, ताते जेता कछु संकल्परूप जगत् भासता है, सो ब्रह्मरूप है, ब्रह्म अरु जगविषे भेद कछु नहीं, एकही वस्तुके दो नाम हैं, जैसे वृक्ष अरु तरु दोनों एक वस्तुके नाम हैं, तैसे ब्रह्म अरु जगत दोनों एक चेतनके नाम हैं ।। हे साधो । जो शब्द वाणीते अगोचर है, तिसको ब्रह्म जान, अरु जो शब्द वाणीविर्षे आता हैं, तिसको भी तू ब्रह्म जान, ब्रह्मते इतर कछु नहीं, जो ज्ञानवान है, तिसको सब ब्रह्मही भासता है, अज्ञानीको नानात्व भासता है, जब अध्यात्म अभ्यास करेगा तब सब जगतरूपही भासैगा, इसका नाम घोष है ॥ हे साधो । नानाप्रकार होकर जगत देखाई देता तौ भी नानात्व कछु नहीं, जैसे समुद्रविषे द्वताकारकै नानाप्रकारके तरंग बुदबुदे चक्र दृष्टि आते हैं, परंतु जलते इतर कछु नहीं, तैसे जेते कछु पदार्थ दृष्ट आते हैं। सो सब आत्मरूप हैं, जेते कछु जीव बोलते दृष्ट आते हैं, सो भी महामौनरूप हैं, अपर कछु बना नहीं, चित्तके ऊरणेकरिकै नानाप्रकारके पदार्थ भासते हैं, परंतु आत्माते इतर कछु नहीं, वही चिदाकाशज्योंका त्यों स्थित है, अपर कछु बना नहीं, जो कछु आत्माते इतर विद्यमान भासता है, तिसको अविद्यमानजान, ब्रह्मा विष्णु रुद्रते आदि लेअर जेता जगत् भासता है, सो सब स्वमविलास है, जैसे नेत्रदूषणकारकै आकाशविषे तरुवरे भासते हैं, तैसे भ्रमदृष्टिकारकै आत्माविषे जगत् भासता है, बना कछु नहीं, जैसे सुषुप्तिविषे पुरुष सोया है, तिसको कुरणा नहीं फुरता, बहुरि तिसी सुषुप्तिसों स्वप्नसृष्टि फुरि आती है, सो बनी कछु नहीं, वही सुषुप्तिरूप है, अरु स्वमविषे स्थित पुरुष है, तिनको सत् भासता है, अरु जो अनुभवविषे जागा है, तिसको सुषुप्तिरूप है, तैसे यह जगत् जान, आत्माते इतर कछु नहीं, जब जागकर देखेगा, तब सब चिन्मात्रही भासैगा, शांतरूप है, अनंत है, सदा अपने आपविषे स्थित् है, तिसविषे जो जगत् भासता है, सो सत भी नहीं, अरु असत् भी नहीं, सत् इस कारणते नहीं कि, आभासमात्र है, अरु नाशवंत है, अः अत् इस कारणते नहीं कि प्रगट भासता है वास्तवते आत्मसत्तासों भिन्न नहीं, भाव अभाव सुख दुःख उदय अस्त वही आत्मसत्ता इसप्रकार हो भासती