पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/८८८

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कुन्दन्तोपदेशवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तरार्द्ध ६. ( १७६९) न कहूँ जन्म रहता है, न कुल रहता है, तैसे ज्ञानवान्को यह जगत् आकाशरूप भासता है, तो मैं तुझको पूर्वको स्मृति क्या कहौं । हे ब्राह्मण 1 अपर कछु बना नहीं, आत्मसत्ताही ज्योंकी त्यों स्थित हैं। जिसते यह सर्वं जगत् हुआ हैं, अरु जिसविषै यह सर्व हैं, जो सर्व है सो सर्वात्मा है, जो वही है तो दूसरा किसको कहौं, ताते ऐसे जानिकरि तुम विचारौ तब तुम्हारे दुःख नष्ट होवैगे ।। हे साधो ! जो कारक हैं,सो ब्रह्मरूप हैं, कत्त, कर्म, करण, संप्रदान, अपादान, अधिकरण, यह छः ब्रह्मरूप हैं, कर्ता कहिये कर्मके करनेहारा, अरु कर्म कहिये जो कर्म करना होवे, कारण कहिये क्रियाका साधक, अरु संप्रदान कहिये जिस निमित्त होवै, अपादान कहिये जिसते ले करिये, अरु अधिकरण कहिये जिसविषे करिये ॥ हे साधो ! यह छःकारक ब्रह्मरूप हैं, इसविषे विश्वका कर्ता भी ब्रह्म है, विश्वकर्माभी ब्रह्म है, विश्वका साधकभी ब्रह्म है, जिस विषे निमित्त यह विश्व है, सो भी ब्रह्म है, जिसविषे यह विश्व होता है, सो भी ब्रह्म है ॥ हे साधी। ऐसा जो सर्वात्मा है, तिसको नमस्कार है। हे साधो ! तिस सर्वात्माको ऐसे जानना, यही उसकी परम पूजा है, ऐसेही तुम पूजन करहु ॥ हे साधो । अब तुम जावई, अपना जो कछु वाँछित है, तिसविषे विचरहु अरु तुमको अपने बाँधव चितवते होगे तिनके पास जावहु, जैसे कमलपास भंवरे जाते हैं, अरु हम भी समाधि विषे स्थित होते हैं, जो कछु गुह्य बात है, सो भी मैं कहता हौं, जिसते कोङ सुख पाता है, सोऊ करता हैं, मुझको जगत् दुःखदायक दृष्ट आया है, इस कारणते समाधिविषे जुडता हौं । हे साधो । यद्यपि मेरे ताई सब अवस्था तुल्य हैं, भेद कछु नहीं, तो भी चित्तकी वृत्ति जो संसारके कष्टते दुःखित होकर आत्मपदविषे स्थित हुई है, तिस स्थितका जो कोङ सुख हैं, तिसके संस्कारकारे बारे तिसी ओर धावत है, ताते तुम जावहु, मैं समाधिविषे स्थित होता हौं । इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे कुंददतोपदेशो नाम | द्विशताधिकसप्तष्टितमः सर्गः ॥ २६७ ।।।