पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/८८९

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१ १७.७०) योगवासिष्ठ । द्विशताधिकाष्टषष्टितमः सर्गः २६८ | | कुंददंतविश्रामप्राप्तितर्णनम् । ॥ कुंददंत उवाच ॥ हे रामजी! इसप्रकार कहिकर वह बहुरि समाधिविषे जुडिगया, इंद्रियाँ अरु मनकी क्रियाते रहित हुआ, मानौ कागज के ऊपर मूत्ति लिख छोडी है, ऐसे हो गया, तब हम बहुर जगाय रहे, बडे शब्द करि रहे, परंतु वह न जागा, तब हम वहाते चले, ब्राह्मणके घर आये, उनके घरविष बडा उत्साह हुआ, बहुरि समय पाय क्रमक रिके सातौ भाई मर गये, अरु अष्टम मेरा मित्र जीता रहा, बहार वह भी मृतक हो गया, तब मैं बहुत शोकवान् हुआ, मेरा प्रीतम भी मर गया, अब में क्या करीं ॥ हे रामजी। मैंने विचार किया कि बहुारे कदंबतपापास जाऊ, जो मेरा दुःख नष्ट होवैगा, तब मैं गया, जायकारि तीन मासपर्यंत उसके पास रहा, उसको मैं जगाय रहा, परंतु वह न जागा, तीन मास हो चुके, तब वह जागा, मैं उसको प्रणाम करके कहा ॥ है मुनीश्वर । वह तो अपने अपने राज्यको भोगने लगे हैं, अरु मैं एकला कष्टवान् हुआ हौं, ताते मेरा दुःख तुम नष्ट करौ, में तुम्हारी शरण आया हौं ॥ कदंबतपा उवाच ॥ हे साधो | मैं तुझको उपदेश करौं, परंतु तुझको स्वरूपका साक्षात्कार न होवैगा, काहेते कि अभ्यास तुझसों न होवैगा, अरु अभ्यासविना साक्षात्कार स्वरूपका नहीं होता, मेरा कहना भी व्यर्थ होवैगा, ताते मैं दुःख नष्ट होनेका उपाय तुझको कहता हौं, ति - कार तू मेरे समान होवैगा, दुःखते रहित अनंत आत्मा होवैगा ॥ हे साधो ! अयोध्या नगरी है, तिसका राजा दशरथ है, तिसके गृहविषे रामजी पुत्र हैं, तिस रामजीको वसिष्ठजी मोक्षउपाय उपदेश करेगा, बड़ी समाविषे कहेगा, तहाँ तू जा, तुझको भी स्वरूपकी प्राप्ति होवैगी, संशय मत कर ॥ हे रामजी! जब इसप्रकार उस तपस्वीने मुझको कहा,तब वहाते चला, मैं तुम्हारे पास आया हौं, जो कछु तू पूछता था, सो सब वृत्तांत कहा है, जो कछु देखा सुना है, सोई कहा है ॥ राम उवाच ॥ हे वसिष्ठ । वह वृत्तांत मैं उसका सुना था, सो प्रभुके आगे कहा है; अरु कुदर्दत भी