पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/८९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(९७०)
योगवासिष्ठ।

समुद्रविषे परमार्थरूपी रत्न है, अरु ज्ञानरूपी तमका नाशकर्ता सूर्यका समूह तुम्हारा स्मरण है, ज्ञान अमृतका कलश अरु धैर्यरूपी चांदनीका चंद्रमा, अरु मोक्षका द्वार तुम्हारा शरण है॥ हे प्रभो! तुम्हारा स्मरण अपूर्वरूपी दीपक उत्तम है, चित्तका मंडप जो है संसार तिस सर्वको प्रकाशता है॥ हे प्रभो! तुम्हारा स्मरण उदार चिंतामणिकी नाई सर्व आपदाको छेदनेहारा हैं, अरु बडे उत्तम पदको देनेहाराहै॥ हे प्रभो! तुम्हारा स्मरण एक क्षण भी चित्तविषे स्थितहोवै, तब सर्वदुःख अरु भयको नाश करता है, अरु वरदायक है, तिसकरि तुम्हारे नाई सुखसों वसता हौं॥ वाल्मीकि उवाच॥ इसप्रकार जब मुनीश्वरने कहा तब दिनका अंत हुआ, सर्व सभा उठी, परस्पर नमस्कार करिके अपने स्थानोंको गये, सूर्यकी किरणों साथ बहुरि अपने अपने आसनपर आय बैठे॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे रुद्रवसिष्ठसमागमवर्णनं नाम सप्तविंशतितमः सर्गः ॥२७॥



अष्टाविंशतितमः सर्गः २८.

ईश्वरोपाख्याने जगत्परमात्मरूपवर्णनम्।

वसिष्ठ उवाच॥ हे रामजी! इसप्रकार मैंने कहा; तब गौरी भगवती जगन्माता जैसे माता पुत्रसे कहै, तैसे मुझसे कहत भई॥ गौरी भगवत्युवाच॥ हे वसिष्ठजी! पतिव्रता जो अरुंधती है, सो कहां है, जो पतिव्रताविषे मुख्य है, तिसको लेआउ क्योंकि वह मेरी प्यारी सखीहैं तिससे मैं कथा शब्दचर्चा करौंगी॥ हे रामजी! इसप्रकार जब मुझको पार्वतीने कहा, तब मैं शीघ्रही जायकरि अरुंधतीको ले आया, वे दोनों परस्पर कथा चर्चा वार्तासंवादविषे लगीं, अरु मैं विचारता भया कि, मुझको ईश्वर प्राप्त भया, अरु पूछनेका अवसर पाया है, ताते सर्वज्ञानके समुद्रको पूँछौं, संदेहको दूरिकरौं॥ हे रामजी! ऐसे विचार करिकै गौरीशसे पूछत भया, तब जो कछु चंद्रकलाधारीनेमुझसे कहा है; सो मैं तुझको कहता हौं, सो सुन॥ वसिष्ठ उवाच॥ हे भगवन्! भूत भविष्य