पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/८९२

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सर्वब्रह्मप्रतिपादनवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तरार्द्ध ६. (१७७३) चेतनता फुरती है, तब बहुरि स्वप्नकी सृष्टि भासती है, कहूँ स्थावर जंगम सृष्टि भासती है, जिनविषे संवेदन फुरती भासती है, सो जंगम कहाता है, अरु जिनविष संवेदन फुरणा नहीं भासता, सो स्थावर कहाता है, परंतु अपर कछु नहीं, वही अद्वैत अनुभवसत्ता स्थावर जंगमरूप हो भासती है, तैसे आत्मा अनुभव यह जगत् हो भासता है । हे रामजी 1 सृष्टिके आदि परम सुषुप्ति सत्ता थी, तिसविषे संवेदनफुरणेकारकै जगत् भासि आया, सो वही संवेदनरूप जगत् है, जिस आत्मसत्ताविष फुरी है, वही रूप है, इतर कछु नहीं, जैसे शरीरके, अंग हस्त पाद नख केशादिक सब शरीररूप हैं, तैसे परमात्माके अंग हस्त पादादिक जंगम सृष्टि अरु नखकेशादिक स्थावर सृष्टि सब आत्मारूप हैं; अपर दूसरी वस्तु कछु नहीं बनी, जैसे स्वप्नसृष्टि अनुभवरूप होती है, जैसे संकल्पपुर रची सृष्टि संकल्परूप होती हैं, तैसे यह सृष्टि अनुभवरूप हैं, यह किसी कारणकार नहीं उपजा; ताते ब्रह्महीरूप है, ब्रह्मके सूक्ष्म अणुविषे सृष्टि कुरी है, सो क्या रूप है, ब्रह्मही सृष्टि हैं, अरु सृष्टिही ब्रह्म है, ब्रह्म अरु जगविषे भेद कछु नहीं, परंतु अज्ञाननिद्राकारकै भिन्न भिन्न भासता है ॥ राम उवाच॥ हे भगवन् । निद्राका केताक प्रमाण है, अरु केते कालपर्यंत रहती है, अरु सूक्ष्म अणुविषे सृष्टि कैसे क़री है, अरु कैसे स्थित है, अरुअणु किसकर उसकी संज्ञा है, अरु अनंत क्योंकरि है, अरु जो देवता असुरादिक रूपको चित्त प्राप्त हुआ है ? ।। वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी । अज्ञाननिद्रा अपने कालविधे तौ अनादि है, जानी नहीं जाती कि, कबकी भई है, अरु अंत भी नहीं जाना जाता कि, कवलग रहैगी; अज्ञानकालविषे तौ इसका आदि अंत परिमाण कछु नहीं भासता, अरु बोधमें इसका अत्यंताभाव देखाजाता है, अरु चित्तसत्ताकी जो अनंतता पूॐ सो हे रामजी ! अद्वैत चिन्मात्र आत्मसमुद्र है, तिसविषे सूक्ष्मभाव अहम् अस्मि जो संवित् फुरती हैं, तिसका नाम चित्त हैं, तिस चित्तविषे आगे जगत् होता है, शुद्ध चिन्मात्रविषे संवेदन चित्त फुरता है, तिसविषे जगत् है, वही चित्त देवता असुर अरु जंगमरूप हो भासती हैं, नाग- पिशाच कीटादिक