पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/८९३

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(१७७४) यौगवासिष्ठ । स्थावर जंगमरूप होय भासती है, अरु वस्तुते चेतनसत्ताही है तिसते इतर कछु नहीं, सब चिदाकाशरूप है, फुरणेकार नानाप्रकार है ॥ हे रामजी ! परम शुद्ध चिद् अणुसाथ मिलकर चित्त अनेक ब्रह्मांडको धारता है, तिस सूक्ष्म अणुविषे अनंत ब्रह्मांड फुरते हैं, परंतु तिसते भिन्न नहीं, जैसे एक पुरुष शयन करता है, तिसको स्वप्नविषे अनेक जीव भास आते हैं, तिन जीवविषे अपने अपने स्वप्नकी सृष्टि फुरती हैं, सो अनेक सृष्टि हो जाती है, तैसे सूक्ष्म चिद् अणुविषे अनंत सृष्टि फुरती है, परंतु कछु आत्मसत्ताते इतर नहीं बना, जैसे सूर्यकी किरणविषे अनंत त्रसरेणु होती हैं, सो सूक्ष्म होती हैं, तैसे परमात्मा सूर्यके चिद् अणु सूक्ष्म हैं, इन त्रसरेणुते भी सूक्ष्म चिद् अणुविधे अनंत सृष्टि अपनी अपनी फ़रती हैं ॥ हे रामजी। जबलग चित्त फुरता रहता है, तब्लग सृष्टिका अंत नहीं आता, असंख्य जगद्धम इस आगे देखे हैं, अरु असंख्यही आगे देखेगा, जब चित्त फुरणेते रहित होता है, तब जगत्कलना मिटि जाती है, जैसे स्वप्नविषे सृष्टि भासती है, बडे व्यवहार होते हैं, जब जाग उठता है, तब स्वप्नसृष्टि व्यवहारकी कल्पना मिटि जाती है, अद्वैत अपना आपही भासता है, तैसे चित्तके ठहरनेते सब भ्रम मिटि जाता है । हे रामजी । सूक्ष्म चिद् अणु भी इसकी संज्ञा तब हुई है, जब इसको चित्तका संबंध हुआ है, जब चित्तको अपने स्वभावविषे स्थित करेगा, तब द्वैतकल्पना सूक्ष्म स्थूल भाव मिटि जावैगा, अरु सूक्ष्म जो इसकी संज्ञा है, सो अविद्यकभावकारिकै है, जो इंद्रियका विषय नहीं, इसकरि अणुता है, अरु सूक्ष्म अणुविषे व्यापा हुआ है, इसकरि सूक्ष्म अणु कहता है, अरु अनंतता इसकारिकै जो सबको धारि रहा है, अरु यह जगद क्या है ॥ हे रामजी । यह जगत् अभावमात्र है, जैसे मरुस्थलविषे जलाभास होता है, तैसे आत्माविषे जगत् भासता है, यह जगत् हैही नहीं, तो इसका कारण कौन कहिये, आदि सृष्टि अकारण फुरी है, बहुरि इसविषे कारणकाय भासन लगे, सो आभासकी दृढता हो गई है, जैसे स्वप्नविषे आदि सृष्टि अकारण बीजवृक्ष कुलाल माटी घट इकडे फुरि आते हैं, जब उस स्वमकी दृढता हो जाती है, तब कारण