पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/८९५

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(१७७६) योगवासिष्ट । राम उवाच ॥ हे भगवन् ! वर अरु शापके कर्त्ता तौ परिच्छिन्न पाते हैं, कारणविना तौ कार्य नहीं पाता, तुम कैसे कहते हौ कि, कारण कार्य कोऊ नहीं ॥ वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! शुद्ध चिदाकाश आत्मसत्ताको किंचन जगत होता है,जैसे समुद्रविषे तरंग कुरते हैं, तैसे आत्मसत्ताविषे जगत् फुरता है, जैसे तरंग जलरूप होते हैं, तैसे जगत् आत्मरूप है, आत्माते इतर कछु नहीं, जैसे आदि परमात्माते सृष्टिका ऊरणा हुआहै, तैसेही स्थित है, अन्यथा नहीं होता, सब जगत् संकल्परूप है, अनेक प्रकारकी वासना संवेदनविषे फुरती हैं, जिनको स्वरूपका विस्मरण्भया है, तिनको यह जगत् सवरूप भासता है, जो उनको विचार उत्पन्नहोवे, तौ वही काल हैं, जिस कालविषे विचार उत्पन्न होता है, तिसी कालविपे अज्ञान निद्राका अभाव होता है । हे रामजी । जब विचार अभ्यासका रिकै मन तद्रूप होता हैं, तब इसको यथाभूत दर्शन होता है, अरु संपूर्ण ब्रह्मांड अपना आपही भासता है, काहेते कि, अपने आपविषे स्थित है, जो सबका अधिष्ठान आत्मसत्ता हैं,तिसविषे इसको अहंप्रतीति होती है, इस कारणते अपने आपविषे सृष्टि भासती हैं, जैसे स्पंद फुरते हैं, तैसेही उसका सिद्ध होता है, निराकरण दृष्ट होता है, निरावरण दृष्ट कारकै सर्व संकल्प सिद्ध होता है, काहेते कि, यह जगत् सब आत्माविषे संकल्पका रचा हुआ है,तिसविषे इसको अहंप्रत्यय हुई है। हे रामजी ! जो संकल्प उसको उठता है कि,यह कार्य ऐसे होवे,सो तैसेही होता है । हे रामजी ! शुद्ध संवेदनविषे संकल्प होता है, सोई हो भासता है, सो संकल्पहीरूप हैं, संकल्पते इतर नहीं, इस कारणते वर अरु शापका अपर कारण कोङ नहीं, वर अरु शाप भी संकल्परूप,अरु तिसकार जो पदार्थ उत्पन्न हुआ है, सो किसी कारण समवायकरि तौ नहीं उत्पन्न हुआ, संकल्पहीकारि क्यों हुआ, ताते सब अकारणरूप हैं, अरु ब्रह्मरूपी समुद्रके तरंग उठते हैं, अपर कारण अरु कार्य मैं तुझको क्या कहौं, सब जगत् ब्रह्मरूप हैं, अपर द्वैत अरु एककी कल्पना कछु नहीं ॥ हे रामजी ! हमको सदा ब्रह्मसत्ताही भासती है,काय कारण कोऊ नहीं भासता,जैसे स्वप्नविषे किसीके घरमें पुत्र भया, बड़े उत्साहको प्राप्त हुआ, जब जाग्रतका संस्कार चित्त