पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/८९७

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( १७७८) । योगवासिष्ठ । प्राप्त भया, ताते उसकी विश्व भी वहीरूप जान ॥ हे रामजी । जैसे उसका स्पंद हुआ है, तैसेही स्थित है, अन्यथा नहीं होता, वही विपर्यय कुरै तौ होवै, अपरसों नहीं होता, अग्निविषे उष्णता, वायुविषे स्पंदता इत्यादिक जो पदार्थ हैं, सो अपने अपने स्वभावविषे स्थित हैं, अरु इमको सब ब्रह्मरूप हैं, जैसे शरीरविषे हाड मांसते इतर नहीं होता, तैसे हमको ब्रह्मते इतर नहीं भासता, जैसे घटविषे मृत्तिकाके इतर कछु नहीं होता, जैसे काष्ठकी पुतली काष्ठते इतर नहीं होंती, तैसे जगत् ब्रह्मते इतर नहीं होता । हे रामजी ! जेता कछु जगत् तुझको भासता है। सो ब्रह्मही हैं, ब्रह्मही फुरनेकार नानाप्रकार जगत् हो भासता है, जैसे समुद्र द्रवताकारकै तरंग बुद्बुदे फैन हो भासते हैं, तैसे ब्रह्मसंवेदनकारि जगत्रूप हो भासता है, परब्रह्मते इतर कछु नहीं, जैसे पर्वतते जल गिरता है, सो कणके जल भासता है, जल गिरिकार ठहर जाता है, तब समुद्ररूप होता है, परंतु जलते इतर कछु नहीं होता, तैसे जब चित्त फुरता है, तब नानाप्रकारका जगत् हो भासता है, जब चित्त ठहरि जाता है, तब सर्व जगत् एक अद्वैतरूप हो भासता है, परब्रह्मते इतर कछु नहीं होता, ब्रह्मही स्थावर जंगमरूप हो भासता है, जहाँ पुर्यष्टकाका संबंध नहीं भासता सो अजंगम कहाता है, जहां पुर्यष्टकाका संबंध होता है वहां जंगमरूप भासता है, परंतु आत्माविषे उभय तुल्य है, जैसे एकही हाथकी अंगुली हैं, जिसको उष्णता अथवा शीतलताका संयोग होता है, सो ऊरणे लगती है, जिसको शीतल उष्णका संयोग नहीं होता सो नहीं फुरती, तैसे जिस आकारको पुर्यष्टका संयोग है, सो ऊरता है, चेतनता भासती है, अरु जिसको पुर्यष्टकाका संयोग नहीं, तिसविषे जड़ता भासती है, सो जड भी आगे दो प्रकारका है, एकको पुर्यष्टकाका संयोग है, अरु जड़ है, एकको पुर्यएकाका संयोग नहीं, अरु जड है, वृक्ष पर्वतको पुर्यष्टकाका संयोग है, परंतु घन सुषुप्ति जडताविषे स्थित भई है, तिस कारणते जड भासते हैं, अरु मृत्तिका पुर्यष्टकाते रहित है, इस कारण है तौ जड रंतु वास्तवते स्थावर जंगम इष्ट अनिष्ट वर शाप देश काल पदार्थ