पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/८९८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

- - - - जीवसंसारवर्णन-निर्वाणकरण, उत्त्तराई ६. ( १७७९) सबही ब्रह्मरूप हैं, ब्रह्मसत्ताही ऐसे स्थित भई है, जैसे अपने अनुभवविर्षे संकल्पनगर नानाप्रकारका भासता है, परंतु संकल्परूप है, संकल्पते इतर कछु नहीं, जैसे मृत्तिकाकी सेना अनेक प्रकारकी होती है, परंतु मृत्तिकारूप है, मृत्तिकाते इतर कछु नहीं, तैसे सर्वके अर्थको धारणेहारी चेतनधातु नानाप्रकारके आकारको प्राप्त होती है, परंतु चेतनताते इतर कछु नहीं होती ॥ हे रामजी । धातु उसको कहते हैं, जो अर्थको धारै, सो जेते पदार्थ तेरे ताई भासते हैं, सब अर्थरूप हैं, अरु वस्तुरूप हैं, जो धातु है सो आत्मसत्ता है, तिसने दो अर्थ धारे हैं, एक स्वप्नअर्थ, एक बोधअर्थ, स्वप्नअर्थविषे तौ नानात्व भासती है, बोधअर्थविषेएक अद्वैतसत्ता भासती है, जैसे एकही धातु मिलने अरु विछुरने दो अर्थको धारती है, सो कैसे अर्थ हैं, सो परस्पर प्रतियोगी शब्द हैं, परंतु एकहीने धारे हैं, तैसे स्वप्रका अर्थ अरु बोध अर्थ इन दोनों को आत्मसत्ताने धारे हैं, जैसे तरंग बुद्बुदे जलरूप हैं, तैसे जगत् ब्रह्मरूप है, जो ज्ञानवान् हैं, तिनको सब ब्रह्मरूप भासता है, अज्ञानीको नानात्व भासता है, तातेतू स्वभावनिश्चय होकर देखु, सब ब्रह्मरूप है, ईतर कछ नहीं, ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे सर्वत्रह्मप्रतिपादनं नाम द्विशताधिकैकोनसप्ततितमः सर्गः ॥२६९ ॥ द्विशताधिकसप्ततितमः सर्गः २७०. जीवसंसारवर्णनम् । राम उवाच ।। हे भगवन् ! जो सर्व ब्रह्मही है तो नैति क्या हैं, अरु नानाप्रकारके पदार्थ क्यों भासते हैं, तिसविषे तुम कहते हौ कि जगत् संकल्पकार रचित है, तौ हे भगवन् ! यह जो पदार्थ असंख्य रूप हैं, तिनकी संज्ञा करी नहीं जाती, अरु इन पदार्थका स्वभाव एक एकका अचलरूप होकर कैसे स्थित हैं, यह कृपा करके कहौ, अरु सर्व देवताविषे सूर्यको प्रकाश अधिक क्यों है, अरु एकही सूर्यविषे दिन छोटे बड़े क्यों होते हैं, अरु रात्रि छोटी बड़ी क्यों होती है, यह