पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/८९९

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५ - - - ( १७८०) योगवासिष्ठ । विचित्रता क्या हैं ? ॥ वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी | शुद्ध चिन्मात्रसत्ताविषे अकस्मात्ते आभास फुरा है, तिस आभासका नाम नेति हैं, अरु सृष्टि भी आभासमात्र है, किसी कारणकरिके नहीं उपजी, जिसके अश्रय आभास फ़रता है सो वही वस्तु अधिष्ठानही होता है, ताते जगत् सब ब्रह्मरूप है, चिन्मात्र सत्ता अपने आपविषे स्थित है, न उदय होती है, न अस्त होती है, परिणामते रहित सदा अद्वैतरूप स्थित हैं, तिसवित्रे न जाग्रत है, न स्वप्न है, न सुषुप्ति है, तीनों अवस्था आभासमात्र हैं, चेतनविषे इनकार द्वैत नहीं बना, यह तीनों इसीका स्वभाव प्रकाशरूप है, इसते इतर कछु नहीं, जैसे आकाश अरु शून्यताविषे भेद कछु नहीं, जैसे वायु अरु निस्पंदविषे भेद कछु नहीं, जैसे अग्नि अरु उष्णताविषे भेद कछु नहीं, जैसे कपूर अरु सुगंधिविषे भेद कछु नहीं, तैसे जाग्रत् आदिक जगत् अरु ब्रह्मविषे भेद कछु नहीं ॥ हे रामजी ! शुद्ध चिन्मात्रविषे जो चित्तभाव हुआ है, तिसविषे चेतन आभास फुरा है, तिसविषे जैसा संकल्प फुरा है,तैसे स्थित भया है, यह इसप्रकार होवे, अरु एताकाल रहै, उस संकल्प निश्चयका नाम नेति हैं, जैसे आदिसँकल्प दृढ भया है, तैसेही अवलग पदार्थ स्थित हैं, पृथ्वी जल तेज वायु आकाश अपने अपने भावविषं स्थित हैं, अपने स्वभावको त्यागते नहीं जबलग उनकी नेति है, तबलग तैसेही जगत् सत्ताविषे स्थित हैं ।। हे रामजी ! 'इसका नाम नेति है, जो जैसे आदि संकल्प धारा तैसे स्थित हैं, अरु वस्तुते क्या है, आभासरूप है,अकस्मावते आभास रा हैं, सो आभास किसी सूक्ष्म अणुविषे फुरा है, जैसे समुद्रके किसी स्थानविषे तरंग बुद्बुदे फुरते हैं, संपूर्ण समुद्रविषे नहीं फुरते तैसे जहां संवेदनविषे जैसा फुरणा होता है, तैसे स्थित होता है, सो नेति है, जैसे तरैग बुद्बुदे समुद्रते भिन्न नहीं तैसे नेति आत्माते भिन्न नहीं,जैसे द्वताकरिकै समुद्रविषे तरंग फुरते हैं, तैसे आत्माविषे संवेदनकारकै नेति अरुजगत ऊरते हैं, सो वही रूप हैं, आत्माते भिन्न कछु नहीं जैसे किसीने कहा, चंद्रमाका प्रकाश है, सो चंद्रमा अरु प्रकाशविषे भेद कछु नहीं, तैसे आत्मा अरु जगविषभेद कछु नहीं, यह विश्व आत्माका स्वभाव है,