पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/९००

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जीवसंसारवर्णन–निर्वाणप्रकरण, उत्तरार्द्ध ६. (१७८३) जैसे एकही कालकी बहुत संज्ञा होती हैं, दिन पक्ष वार मास वर्ष युग कल्प इत्यादिक बहुत नाम हैं, परंतु काल एकही है, तैसे भिन्न भिन्न जगवके नाम हैं, सो सब ब्रह्मही है ॥ हे रामजी ! सब संवेदन चित्तके सन्मुख होती है, तब प्रथम शब्दतमात्र फुरती हैं, तिसते आकाश उपजता, है, सो आकाशका शून्यता स्वभाव है, जब फिरि स्पर्शतन्मात्राको चेता, तिसते वायु फुरा हैं, वायुका स्पंद स्वभाव है, बहुरि रूपतन्मात्राको चेता तब तिसते अग्नि प्रगट हुई, अग्निको उष्ण स्वभाव है, बहुरि रसतन्मात्रीको चेता तब तिसते जल प्रगट भया, जलका द्वस्वभाव है, बहुरि गंधतन्मात्राको चेता तब तिसते पृथ्वीभई,पृथ्वीका स्थिर स्वभाव है, इसप्रकार पंचभूत फ़रि आये । हे रामजी ! आदि जो शब्दृतन्मात्रा फुरी है, सो जती कछु शब्दसमूह वाणी है, सो वृक्ष हुआ, तिसका बीज है, सब तिसीते उत्पन्न हुये हैं, पदार्थ वाक्य वेद शास्त्र पुराण सब तिसीते फुरे हैं, इसी प्रकार पृथ्वी, आप, तेज,वायु, आकाश इनका जो कार्य स्वभाव है,सो सबका बीज आदि इनकी तन्मात्रा है, तिस तन्मात्राका बीज वह संवितसत्ता है ॥ है रामजी । अब इन तत्त्वकी खान सुन, पृथ्वीते अणु भी होती है, अरु एक दुला भी होती, सो पृथ्वी तौ एक है, अणु भी वही है, तैसे सर्व तत्त्वको समुझि देखना, पृथ्वीकी खाण भूपीठ है, सो संपूर्ण भूतजातको धारती है, अरु जलकी खाण समुद्र है, जो सर्व पदार्थविधे रसरूप होकार स्थित हैं, अग्निका जो तेज प्रकाश है, तिसकी समष्टिता सूर्य है, अरु सर्व स्पंदकी समष्टिता पवन है, अरु संपूर्ण शून्य पदार्थकी खाणे आकाश है, इसप्रकार यह पाँचौ तत्त्व संकल्पते उपजे हैं, जैसे बीजते अंकुर उपजता है, तैसे यह भूत संकल्पते उपजे हैं, संकल्प संवेदनते फुरा है, अरु संवेदन आत्माका आभास है, सो आत्मा अद्वैत है, अच्युत है, निवकल्प है, सर्वदा अपने आपविषे स्थित है, तिसके आश्रय संवेदन आभास ऊरा है,बार संवेदनते संकल्प फुग है,संकल्पकार जगत् बन गया है, जैसे समुद्रविषे तरंगफुरता अरु लीन होता है, जैसे संकल्पविषे जगत् उपजता है, बहुरि संकल्पहीविषे लीन होता है, जैसे तरंग जलरूप हैं। तैसे पृथ्वी जल तेज वायु आकाश सब चेतनरूप हैं, जेते