पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/९०१

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(१७८३) योगवासिष्ठ । कछु पदार्थ देखनेसुननेविषे आते हैं, अरु नहीं आते हैं, सो सब चेतनरूप हैं, आत्माते इतर कछु नहीं, वही आत्मा इसप्रकार होता है, स्वप्नविषे अपना अनुभवही पदार्थ हो भासताहै, परंतु कछु बना नहीं, नानाप्रकार भासताहे, तो भी अनाना, तैसेजगत् नानाप्रकार भासता है, तो भी कछु बना नहीं, जैसे एक निद्राके दोरूप हैं,एक स्वप्न, एक सुषुप्ति रूप है, जब फ़रणा होताहै, तब स्वप्नसृष्टि भासतीहे,जब ऊरणा ि सुषुप्ति होती है, जैसे एक वायुके दो रूप हैं, स्पंद होती है, तब भासती है, निस्पंद होती है, तब नहीं भासती, तैसे जब संवेदन फुरती है, तब. जगत् भासता है, जब नहीं फुरती, तब जगत नहीं भासता, इसीका नाम महाप्रलय है, सो दोनों आत्माका आभास हैं ॥ हे रामजी ! संकल्परूप जो है ब्रह्माजी बालक, तिसने आत्माविषे आकाश रचाहे,पृथ्वी रची, आकाशविषे नक्षत्रचक्र रचे हैं, अपर संपूर्ण क्रम रचा है, जैसे बालक अपनेविषे संकल्प रच, तैसे ब्रह्माने रचा है, एक भूगोल रचा है, तिसके ऊपर नक्षत्रचक्र रचे हैं, तिस चक्रके दो भाग हैं। सो अन्योन्य सन्मुख स्थित हैं, तिसते सूर्य होता है, सात घटी दिन अरु रात्रिका प्रमाण है, जब सूर्य नक्षत्रचक्रके ऊध्र्वं ओर उदय होता है, तब दिन बडे होते हैं, जब अध और उदय होता है, तब दिन छोटे हो जाते हैं, ज्यों ज्यों सूर्य क्रमकरिकै ऊर्ध्वते अधकी ओर उदय होताहै, त्यों त्यों दिन छोटे होतेजाते हैं, रात्रि बढती जाती है, बहुरि षट् मासते उपरांत पौष त्रयोदशीतकार सूर्य क्रम कारकै ज्यों ज्यों ऊर्ध्वको उदय होता है, त्यों त्यों दिन बढता जाता है, आप ढकी द्वादशीते लेकर पौष त्रयोदशीपर्यंत रात्रि बढती जाती है, बहुरि रात्रि घटती है, दिन बढता जाता है, जब सूर्य मध्य चक्रके उदय होता है, तब दिन रात्रि समान हो जाता है, सो क्या है, संवेदनरूप जो ब्रह्मा है, तिसीका संकल्प विलास है, जैसे शिल्पी शिलाविषे पुतलियाँ कल्पता है,अरु चेष्टा करता है,सो बना कछु नहीं, शिलाही अपने घन म्वभावविषे स्थित होती है, तैसे चितरूपी शिल्पी आत्मारूपी शिलाविषे जगतरूपी पुतलियां कल्पता है,परंतु कछु बुना नहीं, ब्रह्मसत्ता सदा अपने आपविषे स्थित है, जब संवेदन चेतती