पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/९०२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

जीवसंसारवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तरार्द्ध ६. (१७८३) है, जब रूप देखनेकी इच्छा होती है, तब चक्षु इंद्रिय बन जाती हैं, वह रूपको ग्रहण करती है, जब स्पर्शकी इच्छा होती हैं, तब त्वचा इंद्रिय बन जाती है, वह स्पर्शको ग्रहण करती है, जब गंधकी इच्छा होती है। तब ब्राण इंद्रिय बनिकार गंधको ग्रहण करती है, जब शब्द सुननेकी इच्छा होती है तब श्रवण इंद्रिय बनि जाती है, वह शब्दविषयको ग्रहण करती है, जब रसकी इच्छा होती है तब रसना इंद्रिय प्रगट होकर स्वादको ग्रहण करती है, जब अपने उर वायुको देखनेकी ओर चेतती है तब अपने साथ वायुको देखती है, तिस वायुविष प्राण फुरती देखती है ॥ हे रामजी । देखना, सुनना, रस लेना, स्पर्शकरना, बोलना, गंधलेना, जहाँ जहाँ इंद्रियाँ विषयको ग्रहण करत भई, सो देश हैं, अरु जिस विषयको ग्रहण करने लगीं सो पदार्थ है, अरु जिस समय ग्रहण करने लगीं सो काल है, इसप्रकार देश काल पदार्थ हुये हैं, बहुरि यह शुभ है, यह अशुभ है, इस क्रमकारिकै कर्म भासने लगे।। हे रामजी! इसप्रकार संवेदन फुरकार जगत्को रचा है, शरीरको 'चकर इष्टअनिटुको ग्रहण करती है, तू कहै, इंद्रियों तौ भिन्न भिन्न हैं, अरु अपने अपने विषयको ग्रहण करती हैं, सर्व इंद्रियके इष्ट अनिष्ट इस जीवको कैसे होते हैं, तब इसका दृष्टांत सुन ॥ हे रामजी । जैसे तंतु एक होता हैं, अरु मणके बहुत होते हैं, सो सर्वका आश्रय सूत्र होता है, तैसे अहंकाररूपी सुत्र है, अरु सर्व इंद्रियरूपी मणके हैं, यह कारणते अहंकार जीव आश्रयभूत इंद्रियके सुखसाथ सुखी होता है, अरु इंद्रियके दुःखसाथ दुःखी होता है, अरु इंद्रियां आपहीते कार्य कारण करनेको समर्थ नहीं होतीं, अहंकार जीवकी सत्ताकारकै चेष्टा करती हैं, जैसे शंखको आपते बाजनेकी समर्थता नहीं, जब पुरुष बजाता है, आप शब्द करता है,तब शंख बाजता है, तैसे इंद्रियकी चेष्टा अहंकार अरु जीवकारकै होती है ॥ है। रामजी ! वास्तवते न कोऊ इंद्रिय हैं,न इनके विषय हैं, न मनका कुरणा है, सब आभासमात्र है, जब संवेदन फुरती है, तब एती संज्ञाको धारती है, जब संवेदन निवाण होती है, तब सर्व कल्पना मिटि जाती है । इति श्रीयोग० निर्वा० जीवसंसारवर्णनं नाम द्विशताधिकसप्त सर्गः ॥२७०॥