पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/९०३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

( १७८४) योगवासिष्ठ । द्विशताधिकैकसप्ततितमः सर्गः २७१, . सर्वप्रतिपादनम् वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी! यह संपूर्ण कल्पनाका क्रम मैं तुझको कहा है, जेता कछु जगत देखाजाता है सो संवेदनरूप है, शुद्ध चिन्मात्र सचाका जो आदि आभास चेतनताका लक्षण चित्त अहम् अस्मि तिसका नाम संवेदन है, तिसके एते पर्याय हुये हैं, कई ब्रह्मा कहते हैं, कई विष्णु कहते हैं, कई प्रजापति कहते हैं, कई शिव कहते हैं, इनते आदि लेकर पर्याय हुये हैं, तिस संवेदन आगे संकल्प फुर विश्वको रचा है, सो कैसा विश्व है, कि अकारण है, किसी कारणकार नहीं बना, काकतालीवत् अकस्मात् आभास कुरा हैं,आकारसहित दृष्ट आता है, परंतु अंतवाहक है, व्यवहारसहित दृष्ट आता है, परंतु अव्यवहार है । हे रामजी ! संवेदुन जो अंतवाहकरूप है,तिसने आगे विश्वरचा है,सो भी अंतवाहकरूप, परंतु अज्ञानीको संकल्पकी दृढताकारिकै आधिभौतिकरूप हो भासती है, जैसे संकल्पनगर अरु स्वप्नपुर अरु संकल्पते इतर कछु नहीं, संकल्पकी दृढताकारिकै साकाररूप पहाड़ नदियां घट पट आदि पदार्थ प्रत्यक्ष भासते हैं, परंतु बने तो कछु नहीं, शून्यरूप हैं, तैसे यह जगत् निराकार शून्यरूप है । हे रामजी ! आदि जो अंतवाहकरूप संवेदन फुरी है सो बहिर्मुख ऊरणेकरिकै देश काल पदार्थरूप हो स्थित भई है, जब बहिर्मुख ऊरणा मिटि जाता है, तब जगत् आभास भी मिटि जाता है, जैसेस्वप्न आभास जगत् तबलग भासता है, जबलग निद्राविषे सोया होता है, जब जागना है, तब स्वप्नजगत् मिटि जाता है, एक अद्वैतरूप अपना आपही भासता है, तैसे यह जगत् अज्ञानके निवृत्त हुये लीन हो जाता है, सब जगत् निराकार है,संकल्पकी हृढताकारिकै आकार भासते हैं॥हे रामजी। संवेदनविषे जो संकल्प फुरता है, वही अंतःकरण चतुष्टय हो भासता है. पदार्थके चितवनेकार इसका नाम चित्त होता है, संकल्प विकल्पके संसरणेकार इसका नाम मन होता है, अरु ज्यों त्यों निश्चय करणेकरि