पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/९०५

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( १७८६ ) योगवासिष्ठ । प्रकारके वृक्ष अरु फूल फल टास पत्र रच, तैसे ब्रह्माजी रचत भया, सो अंतवाहक जीव उपजाये, जब जीवको शरीरविषे हृढ अभ्यास हुआ, तब अंतवाहकते आधिभौतिक हो गये ॥ राम उवाच ॥ हे भगवन् ! ब्रह्मसत्ता तौ निराकार थी, तिसको शरीरका संयोग कैसे भया है, तिसते आधिभौतिकता कैसी हो गई । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! न कोऊ शरीर हैं, न किसीको शरीरका संयोग भया है, केवल अद्वैत आत्मसत्ता अपने अपविषे स्थित है, तिसविषे चेतन संवेदन फुरी है, वह संवेदन दृश्यको चेतती रहती है, सोई जगरूप होकरि स्थित भई हैं, जब संकल्पकी दृढता हो गई, तब अपने साथ शरीर भासने लगा, अरु अपर आकार भासने लगे, सो आकार कैसे हैं, आकशहीरूप हैं, कछु बने नहीं, जैसे स्वप्नसृष्टि उपजी कहिये,सोउपजी कछुनहीं,अरु तिसका कारण भी कोऊ नहीं, केवल आकाशरूप है,कोऊ पदार्थ उपजा नहीं, परंतु स्वरूपके विस्मरण करिकै आकार भासते हैं, तैसे यह शरीर अरु जगत जो भासता है, सो केवल आभासमात्र है, असंभावनाकी दृढताकारिकै प्रत्यक्ष भासताहे, जब स्वरूपका विचार कर देखेगा,तब शांत हो जावेगा । हे रामजी! अविद्या भी कछ वस्तु नहीं, जैसे स्वप्नका पदार्थ अविद्यमान होता है,अरु विद्यमान भासता है, जच जागता है, तब अविद्यमान हो जाता है, तैसे यह जगत् विचारसिद्ध है, विचार कियेते शांत हो जाता है, जब विचार कर देखेगा तत्र सर्वात्माही भासेगा॥हे रामजी। आत्मसत्ता अव्यभिचारीहै, अर्थ यह कि जो सत्तामात्र है, इसका अभाव कदाचित् नहीं होता,अरु अच्युत, सदा ज्योंकी त्यों है, अपने भावको त्यागती कदाजित नहीं, इसते इतर भासे सो भ्रममात्र जान॥ हे रामजी । विचार करके जब दृश्यभ्रमशांत होता है,तब मोक्ष प्राप्त होता है, आत्मसत्ता ज्ञानरूप है, अरु निराकार, सदा अपने आपविषे स्थित है, जब सम्यक् ज्ञानका बोध होता है, तब जगत्भ्रम नष्ट होताहै ॥ राम उवाच॥ हे मुनीश्वर ! सम्यकूज्ञान किसको कहते हैं, अरु बोध किसको कहते हैं ॥ वसिष्ठ उवाच॥ हे रामजी। केवल जो बोधमात्र है, सो बोध कहाता है, तिसको ज्योंका त्यों जानना, इसका नाम सम्यक्रूज्ञान है ॥ राम उवाच ॥ हे भगवन् ! केवलबोध