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योगवासिष्ठ।

सम्यक‍्ज्ञानका है कि, आत्मतत्त्वको ज्योंका त्यों जानना, अरु साम्य नाम है, जो सर्वविषे पूर्ण देखना. शमका अर्थ यह कि, चित्तकोनिवृत्त करना आत्मतत्त्वते इतर कछु न फुरै, इन तीनों फूलनसे शिवचिन्मात्र शुद्ध देवकी पूजा होती है॥ हे मुनीश्वर! बोध, साम्य, शम, इन पुष्प नकरि आत्मादेवकी पूजा करते हैं, यही देवकी पूजा है, आकार अर्चनकरि अर्चा नहीं होती, जो आत्मसंवित् चिन्मात्र है, तिसको त्यागिकरि अपर जड़की जो अर्चना करते हैं, सो चिरपर्यंत क्लेशके भागी होते हैं॥ हे ब्राह्मण! जो ज्ञान ज्ञेय पुरुष है, सो आत्मध्यानते इतर पूजन अर्चन बालककी क्रीडावत् मानते हैं, आत्माभगवान् एक देव है, सो शिव है, परम कारणरूप है, तिसका सर्वदाही ज्ञान अर्चनकरि पूजनहै, अपर पूजा कोई नहीं, चेतन आकाश अवयव स्वभाव एक आत्मदेवको तू जान, अपर पूज्य पूजक पूजा त्रिपुटीकरि आत्मदेवकी पूजा नहीं होती॥ वसिष्ट उवाच॥ हे भगवन्! चेतन आकाशमात्र आत्माको जैसे यह जगत् है, अरु चेतनको जीव कहतेहैं, सो कहौ॥ ईश्वर उवाच॥ हे मुनीश्वर! चेतन आकाश प्रसिद्ध है, सर्व प्रकृतिते रहित है, जो महाकल्पविष शेष रहता है, सो आपही किंचनरूप होताहै, तिस किंचनकरि यह जगत् होता है, जैसे स्वप्नविषे चिदात्माही सर्वगत जगत‍्‍रूप होकरि भासता है, तैसे जाग्रत् जगत् भी चिदाकाशरूप है, आदि सगते लेकर इसकालपर्यंत आत्माते इतरका अभाव है, जैसे स्वप्नविषे जो जगत् भासता है, सो सब चिदाकाशरूप है, अपर इतर कल्पना कोई नहीं, चिन्मात्रही पहाड़रूप है, चिन्मात्रही जगत् है, चिन्मात्रही आकाश है, चिन्मात्रही सब जीव हैं, चिन्मात्रही सब भूत हैं, चिन्मात्रते इतर कछु नहीं, सृष्टिके आदि अरु अंतपर्यंत अपर जो कछु द्वैतकल्पना भासती है, सो भ्रममात्र है; जैसे स्वप्नविषे किसीके अंग काटेसो किसीके काटे तो नहीं निद्रादोषकरि ऐसे भासते हैं, तैसे यह जाग्रत् जगत् भी भ्रममात्र है॥ हे मुनीश्वर! आकाश परमाकांश ब्रह्माकाश तीनों एकहीके पर्याय हैं, जैसे स्वप्नविषे संकल्पकरि मायामेंते अनुभव होता है, सो सब चिदाकाश है, तैसे यह जाग्रत् जगत् चिदाकाशरूप है, जैसे स्वप्नपुरविषे