पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/९१३

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( १७९४) यौगवासिष्ठ । भासते हैं जो कहनेविषे नहीं आता ॥ वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी! अज्ञानीको द्वैत सघन दृढ भासता है, अरु ज्ञानवान्को सघन द्वैत नहीं भासता, काहेते कि, आदि तौ उपजा नहीं, अद्वैत आत्मतत्व अवाच्यभासता है ॥ राम उवाच ॥ हे भगवन् ! जौ आदिते उपजा न होवे तौ अनुभव भी न होवै यह तो अनुभव प्रत्यक्ष होता है, असत् कैसे कहिये। वसिछ उवाच ।। हे रामजी 1 असतही सत्की नई हो भासती है, यह कारणते रहित भासती है; जैसे स्वप्नविषे पदार्थ का अनुभव होता है, परंतु वास्तवते कछु नहीं, तैसे यह असतही अनुभव होता है। राम उवाच ॥ हे भगवन् ! स्वप्रविषे असंकल्पविषे जो दृश्यशंका अनुभव होता है। सो जाग्रतके संस्कारते होता है, अपर कछु नहीं ॥ वसिष्ठ उवाच ।। हे रामजी ! स्वप्न अरु संकल्प तिसके संस्कारते होते हैं, सो जाग्रतके संस्कार कैसे होते हैं, वहीरूप अथवा जाग्रतते अन्य हैं ॥ राम उवाच ॥ हे भगवन् ! स्वप्नके पदार्थ अरु मनोराज्य सो जाग्रतके संस्कारते जाग्रतकी नई भासता है, सो भ्रमविष भासते हैं । ॥ वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी । जो स्वप्नविषे जातके संस्कारकरिकै जगत् जाग्रतकी नई भासता है, जो स्वप्नविषे किसीका घर लूट गया, अथवा जलके प्रवाहविषे बह गया, तौ जाग्रविषे तौ कछु हुआ नहीं, प्रातःकालको उठिकर देखता है, तब ज्योंका त्यों भासता है, तौ संस्कार भी कछु न हुआ सब कल्पनामात्र जानना ॥ राम उवाच ॥ हे भगवन् ! अब मैं जाना है, कि यह सर्व ब्रह्मही है, न कोऊ देह है, न जगत् है, न उदय हैं, न अस्त है, सर्वदाकाल सर्व प्रकार वही ब्रह्मसत्ता अपने आपविषेष स्थित है, तिसते इतर जो कछु भासते हैं, सो भ्रममात्र हैं, अरु भ्रम भी कछु वस्तु नहीं, सर्व चिदाकाश ब्रह्मरूप है ॥ वसिष्ठ उवाच ॥ है रामजी। जो कछु भासता है, सो सब ब्रह्महीका प्रकाश है, वही अपने आपविषे प्रकाशता है ॥ राम उवाच ॥ हे भगवन् ! सर्गके आदि देहचित्तादिक कैसे फ़ार आये हैं, अरु कैसे आत्मा प्रकाशरूप जगत है। प्रकाशभी तिसका होता है, जो साकाररूप होता है, ब्रह्म तो निराकार हैं, दीपक आदिकवत् आकारते रहित है, तिसका प्रकाश कैसे कहिये १ ॥