पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/९१४

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विद्यावादबौधौपदेशवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तरार्च ६. (१७९५) वसिष्ठ उवाच ॥ है रामजी । सर्वं ब्रह्मरूप है, प्रकाश अरु प्रकाशकका भेदभी कछु नहीं, दूसरी वस्तु भी कछु नहीं, वही अपने आपविषेस्थित है, ताते स्वप्रकाश कहा है, सूर्य आदिकका प्रकाश त्रिपुटीकरि भासता है, सो भी तिसके आश्रय होकार प्रकाशता है, तिसके प्रकाशका आधारभूत कहाना है, तिसके आश्रय होकर सूर्य जगत्को प्रकाशता है, अरु आत्मसत्ता अद्वैतसत्ता है, अरु विज्ञानघन है, तिसविषे चित्त सैवेदन फुरी है, वही जगतरूप होकार स्थित भई है, आत्मसत्ता अरु जगविपे भेद कछु नहीं, जैसे आकाश अरु शून्यताविषे भेद कछु नहीं, तैसे आत्मा अरु जगविषे भेद नहीं, वही इस प्रकार एकही नाईं स्थित भया है । हे रामजी । निराकार स्वभवत् साकाररूप हो भासता है । हे रामजी ! इस जगदके आदि अद्वैत चिन्मात्रसत्ता थी, तिसीसों जो नानाप्रकारका जगत् दृष्ट आया, तौ वहीरूप हुआ क्यौं ? अपर कारण तौ कोऊ नहीं, जैसे स्वप्नके आदि अद्वैतसत्ता निराकार हैं, तिसको सूर्यादिक पदार्थ भासि आते हैं, सो भी वहीरूप हुये ॥ क्यौं । प्रगट भासते भी हैं, तैसे यह जगत् भी अकारण अरु निराकार जान॥ हे रामजी । न कोऊ जाग्रत् है, न स्वम है, न सुषुप्ति है, सबै आभासमात्र है, यह आत्मसत्ता अपने आपविषे स्थित हैं, हमको तो वही सदा विज्ञानघन आत्मसत्ता भासती है, जैसे दर्पणविषेष अपना सुख भासता है, जैसे हमको अपना आप भासता है, अरु अज्ञानीको श्रतिरूप जगत् भासता है, जैसे वृक्षके कुंडविषे पुरुष भासता है, दूरते भ्रांतिकारकै, तैसे अज्ञानीको जगत् भासता है । हे रामजी ! न कोङ द्रष्टा है, न दृश्य है, द्वष्टा तब कहिये जो दृश्य हवे, अरु दृश्य तब कहिये जो द्रष्टा हो, जो दृश्य नहीं तो द्रष्टा किसका, अरु जो द्रुष्टाही नहीं तो दृश्य किसका, ताते निर्विकार ब्रह्मसत्ता अपने आपविषे स्थित है, जो आकारभी भासते हैं, तो भी निराकार है, त्मसत्ताही संवेदनकरिके आकाररूप हो भासती है, जैसे स्तंभविषे चितेरा घुतलियां कल्पता है, कि एती पुतलियां स्तंभविषे हैं, तो उसको प्रत्यक्ष खोदेविनाही भासती हैं, तैसे खोदेविना ब्रह्मरूपी स्तंभविषे मनरूपी