पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/९१५

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( १७९६) । योगवासिष्ठ । चितेरा यह पुतलियाँ देखता है, सो हुआ कछु नहीं ॥ है रामजी ! इन मेरे वचनोंको तू स्वप्न अरु सँकल्प दृष्टांतकारकै देखु, जो अनुभवरूपही आकार हो भासता है, अनुभवते इतर कछु नहीं, इस मेरे वचनरूपी उपदेशको हृदयविषे धार, अरुअज्ञानीके वचनको छर्दिकी नाई त्याग. इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे विद्यावाद्बोधोपदेशो नाम द्विशताधिकद्विसप्ततितमः सर्गः ॥ २७२ ॥ द्विशताधिकत्रिसप्ततितमः सर्गः २७३. रामविश्रांतिवर्णनम् । राम उवाच ॥ है भगवन् ! बड़ा आश्चर्य है, कि हम अज्ञानकारकै जगतको देखते भये, जगत् तौ कछु वस्तु नहीं, सर्वं ब्रह्मही है, अरु अपने आपविषे स्थित है, जगत भ्रमकार भासता है, अब मैं जाना है, कि यह जगत् भ्रममात्र था, वस्तुते न यह पीछे था, न होना है, न आगे होवैगा, सर्व शांत निरालंब विज्ञानघनसत्ता है, अरु भ्रांति भी कछ वस्तु नहीं,ब्रह्मही अपने आपविषे स्थितहैं, सो कैसा है, निर्विकारहै, शाँतरूप हैं, जैसे सर्गके आदि अरु परलोकके आदि स्वप्नके आदि सकल पुरके आदि इन स्थानों विषे अद्वैत चिन्मात्रसत्ता होती है,तिसकी आभास संवेदन स्पंद फुरती है, तब अनेक पदार्थसहित जगत् भासि आता है,सो अनुभवरूप होता है,इतर कछु वस्तु नहीं, तैसे यह जगत् अनुभवरूपहै ॥ हे प्रभो ! अब मैं तुम्हारी कृपाते ऐसे निश्चय किया है, कि जगत् अविचारसिद्ध है, विचार कियेते निवृत्त हो जाता है, जैसे शशेके सिंग अरु आकाशके फूल असत होते हैं, तैसे जगतअसत् है, बडा आश्चर्यहै जो असवरूप अविद्याने मोहित किया था, अब मैंने जाना है, कि अविद्या कछु वस्तु नहीं, अपनी कल्पनाही आपको बंधन करती है, जैसे अपने परछाईंविषे बालक भूत कल्पता है,अरु आपही भय पाता है, तैसे अपनी कल्पनाही अविद्यारूप भासती है,जबलग विचार प्राप्त नहीं भयातबलग भासती हैं, विचार कियेते अविद्याका अत्यंत अभाव हो जाता है, जैसे जेवरीविषे संप भासता हैं, जेवरीके जाननेसे सर्पका अत्यंत अभाव हो