पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/९१७

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( ३७९८) योगवासिष्ठ । द्विशताधिकचतुःसप्ततितमः सर्गः २७४, रामविश्रांतिवर्णनम् । • राम उवाच ॥ हे मुनीश्वर । जो आदि अंत मध्यते रहित पद है अरु मुनिकार जानना भी कठिन है, सो पद मैं पाया हौं; एक अरु द्वैतकी कल्पना जो शास्त्र वेदकर कही है, सो मेरी मिटि गई हैं, अब मैं परम शांतिको प्राप्त भयो, अरु निःशंक हुआ हौं, कोऊ दुःख सुझको नहीं रहा, सब जगत मुझको आत्मरूपही भासता है । हे भगवन् ! अब मैंने जाना है कि, न कोऊ अविद्या है, न विद्या हैं, न सुख है, न दुःख है, सर्वदा अपने आत्मपदविषे स्थित हौं, पाने योग्य पद् सो मैंने पाया है, जो आगेही प्राप्त था, जो कहते हैं हम तिस पदको नहीं जानते तिनकोभी प्राप्तरूप है, परंतु अज्ञानकरिके नहीं जानते, सो पद अपर किसीकर नहीं जानाजाता, अपने आपकर जानाजाता है, अरु ऐसे भी नहीं, जो किसीकारे जनावे, अरु जानने योग्य अपर होवे, आपही बोधरूप है, सदा अपना आपही है, अपर न कोऊ भ्रांति है, न जगत है, सर्व आत्माही है ॥ हे मुनीश्वर । अज्ञान अरु ज्ञान भी ऐसे हैं, जैसे स्वप्नसृष्टि भाले, तिसविषे अंधकार भासे, सो अंधकार तब नाश होवै, जब सूर्य उदय होवे,अरु जब स्वप्नते जागि उठै, तब ने अंधकार रहता है,न प्रकाशही रहता है, तैसे आत्मपदविषे जागेते ज्ञान अज्ञान दोनोंका अभाव हो जाता है, द्वितीय कल्पना मिटि जाती है,जब संवेदन फुरती है,तब जगत् भासता हैं, परंतु जगत् आत्मसत्ताते भिन्न कछु वस्तु नहीं, जैसे आकाश अरु शुन्यताविषे कुछ भेद नहीं, तैसे आत्मा अरु जगविषे भेद कछु। नहीं, जैसे शिलाका अंतर जडीभूत होता हैं, तैसे आत्माका रूप जगत् है, जैसे जलरूप तरंगविषे भेद कछु नहीं, तैसे आत्मा अरु जगत् अभेदरूप हैं ॥ हे मुनीश्वर जिस पुरुषको ऐसे आत्माविषे अहं प्रतीति भई है, सो कार्यकर्ता दृष्ट आता है, तो भी अंतरते निश्चयकार कछु नहीं करता, अशाँतरूप दृष्ट्वा आता है,तौ भी सदा शतिरूप है॥हे मुनीश्वर! अज्ञानरूपी