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रामविश्रांतिवर्णन-निर्वाणकरण, उत्तराई ३६. (१७९९ ) मध्याह्नका सूर्य है, अरु जगत्की सत्यता रूपी दिन है, जगत्के भावअभाव पदार्थरूपी तिसका प्रकाश है, अरु तृष्णा रूपी मरुस्थल हैं, तिसविर्षे अज्ञानी जीवरूपी मार्गपंथी हैं, तिनको दिन अरु मार्गनिवृत्त नहीं होता, अरुजो ज्ञानवान् स्वभावविषे स्थितहैं; तिनको न संसारकी सत्यतारूपी दिन भासता है,न तृष्णारूपी मरुस्थल भासता है,वह संसारकी ओरते सोइ रहे हैं, ऐसी अद्वैतसत्ता तिनको प्राप्त भई है, जहाँ सत् असत् दोनों नहीं, तिस कारणते जगत्कलना नहीं भासती ॥ हे मुनीश्वर अब मैं जागा हौं, सब जगत् सुझको अपना आपही दृष्ट आता है, मैं निवणरूप निराकार हौं, निरिच्छितरूप हौं, परंतु मैं स्वभावसत्तारूप हौं, अब कोऊ दुःख मुझको नहीं ॥ हे मुनीश्वर । तिस पदको मैं पाया हौं, जिसके पानेकरि तृष्णा कदाचित् नहीं उपजे, जैसे पाषाणकी शिलावि प्राण नहीं फुरते, तैसे मुझविषे तृष्णा नहीं फुरती, सर्व आत्मरूपही मुझको भासता है, अरु यह जो जीव हैं, तिसविणे जीवत्व कछु नहीं जीवत्व भ्रांतिसिद्ध है,सब आत्मस्वरूप है, मुझको तौ निरालंबसत्ता अपना आपही भासती ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे रामविश्रांतिवर्णनं नाम द्विशताधिकचतुःसप्ततितमः सर्गः ॥ २७४ ॥ प्राण नहीं करि तृष्णा कदम है जुनीश्वर । ति स्वभावसत्तारूप द्विशताधिपंचशप्ततितमः सर्गः २७९. = रामविश्राँतिर्णनम् । | राम उवाच ॥ मुनीश्वर ! आत्माविषे अनंत सृष्टि फुरती हैं, जैसे मेंघकी बूंदकाअंत गनतीते कछु नहीं होता,तैसे परमात्माविषे सृष्टिका अंत गनतीते नहीं होता, जैसे एक रत्नकी असंख्यात किरणें होतीहैं, तैसे परमात्माविषे असंख्य सृष्टि हैं, कई परस्पर मिलती हैं, कई नहीं मिलती, परंतु स्वरूपते एकरूप हैं, जैसे एक समुद्रमें लहरैयां उठती हैं, कई नूतन भिन्न भिन्न अपरही प्रकारकी उठती हैं, एक तौ परस्पर ज्ञान होती हैं, एक नहीं होती हैं, अरु जैसे एकही ज्वालाके बहुत दीपक होते हैं, कई अन्योन्य