पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/९१९

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( १८००) योगवासिष्ठ । होते हैं, कोऊ परस्पर मिलते हैं, स्वरूपते एकरूप हैं, तैसे आत्माविषे अनंत जगत् फुरते हैं, परस्परते एकरूप हैं ,जो नानाप्रकारका जगत् दृष्ट आया, तिसविषेतौ वही रूपहुआ क्यों, अपर कारण तौ कोऊ नहीं, जैसे शून्यके आदि निराकारसत्ता होती है, तिसीसों सूर्यादिक पदार्थ भास आते हैं, सो भी वही रूप हुये, प्रगट भासते भी हैं, परंतु निराकार होते हैं, जैसे यह जगह भी अकारण निराकार है । हे मुनीश्वर ! अब मैं ज्योंका त्यों जाना है, जैसे स्वप्नविषे मुये हुये बोलते दृष्ट आते हैं, अरु जीवते हुये मृतक दृष्ट आते हैं, स्वप्नकालविषे पदार्थ विपर्यय भासते हैं, परंतु जब जागि उटैं, तब ज्योंके त्यों भासते हैं, तैसे मैं जाग उठा हौं, मुझको विपर्यय नहीं भासता, यथाभूतार्थ मुझको अब सर्वात्माही भासता है ॥ हे मुनीश्वर ! जो ज्ञानवान् पुरुष हैं, सो परम समाधिविषे स्थित हैं, तिनको उत्थान कदाचित् नहीं होता, अर्थ यह कि, स्वरूपते इतर नहीं भासता, व्यवहार करते दृष्ट आते हैं,परंतु व्यवहारते रहित हैं, काहेते कि, अभिलाषा कछु नहीं रहती, विना अभिलाषा चेष्टा करते हैं, अंतरते कछु कर्तृत्वका अभिमान नहीं ऊरता, इसीका नाम परम समाधि है, जब बोधकी प्राप्ति होती है, तब तृष्णा कोऊ नहीं रहती, सब पदार्थ विरस हो जाते हैं, काहेते कि,आत्मपद जो परमानंदरूप है, जो तृष्णाते रहित है, तिसीका नाम मोक्ष हैं, अरु तिसीका नाम निर्वाण हैं, जिसविषे उत्थान कोऊ नहीं। हे मुनीश्वर। आत्मानंद ऐसा पद है, जिस पदके आनंदुको ब्रह्मा विष्णु रुद्रादिकज्ञानवान्की वृत्ति सदा दौड़ती है,संसारके पदार्थकी ओर नहीं धावती, अरु जिस पुरुषको शीतल स्थान प्राप्त भयाहै, सो बारे ज्येष्ठ आङ्बुढकी धूपको नहीं चाहता, जो मरुस्थलको दौड़े, तैसे ज्ञानवान्की वृद्धि आनंदकी ओर नहीं धावती ॥ हे मुनीश्वर ! मैंने निश्चय किया है कि,तृष्णा जैसा पाप कोऊ नहीं, अतृष्णा जैसी शांति को नहीं जो पुरुष परम ऐश्वर्यको प्राप्त है,अरु अंतर तृष्णा जलावती है, सो कृपण दारद्री है, अरु आपदाका स्थान है, अरु जो निर्धन दृष्ट आता है, परंतु अंतर तृष्णा कोऊ नहीं, सो परम ऐश्वर्यकार संपन्न है, अरु परम संपदाकी मूर्ति है, अरु जो बड़ा पंडित है परंतु तृष्णासहित