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वसिष्ठेश्वरसंवादे चैतन्योन्मुखत्वविचारवर्णन–निर्वाणप्रकरण ६.

आकाशते इतर कछु नहीं होता, तैसे जाग्रत् स्वप्नभी आत्मतत्त्व होकरि भासता है; आत्माते इतर दूजी वस्तु कछु नहीं॥ हे मुनीश्वर! जैसे स्वप्नविषे चिदाकाशही घट पट आदिक होकरि भासता है, तैसे स्थितिप्रलयादि जगत् चिदात्माते इतर कछु नहीं, आत्माही ऐसे भासता है, जैसे शुद्ध संवित‍्मात्रते इतर स्वप्नविषे नगर नहीं पाता, तैसे जाग्रत‍्विषे अनुभवते इतर कछु नहीं पाता॥ हे मुनीश्वर! भावअभावरूप पदार्थ तीनों काल जगत् भासता है; सो सब चिदाकाशरूप है, आत्माते इतर कछु नहीं॥ हे मुनीश्वर! यह देव मैं तुझको कहा है सो परमार्थते कहा है, तू मैं अरु सब भूतजाति जगत् सर्वका जो देव है सो चिदाकाश परमात्मा है, तिसते इतर कछु नहीं, जैसे संकल्पपुरविषे चिदाकाशही शरीररूप हो भासता है, इतर कछु नहीं बना, तैसे यह सब चिदाकाशरूप है॥

इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे ईश्वरोपाख्याने जगत्परमात्मरूपवर्णनं नाम अष्टाविंशतितमः सर्गः ॥२८॥



एकोनत्रिंशत्तमः सर्गः २९.

वसिष्ठेश्वरसंवादे चैतन्योन्मुखत्वविचारवर्णनम्।

ईश्वर उवाच॥ हे ब्राह्मण! इसप्रकार यह सर्व विश्व केवल परमात्मारूप है परमात्माकाश ब्रह्मही एक देवकरि कहाता है, तिसहीका पूजन सार है, तिसहीते सर्व फल प्राप्त होते हैं, सो देव सर्वज्ञ है, अरु सब तिसविषे स्थित हैं, अकृत्रिम देव अज परमानंद अखंडरूप है, तिसको साधना करिकै पाना है, तिसकरि परमसुखको प्राप्त होता है॥ हे मुनीश्वर! तू जागा हुआ है, तिस कारणते इसप्रकार देवअर्चना मैं तुझको कही है, अरु जो असम्यकदर्शी बालक हैं, जिनको निश्चयात्मक बुद्धि प्राप्त नहीं भई, केवल चित्त है, तिनको धूप दीप पुष्प कर्म आदिक अर्चना कहीहै, आकार करिकै कल्पित देवकी मिथ्या कल्पना करी है॥ हे मुनीश्वर! अपने संकल्पकरि जो देव बनावते हैं, तिसको पुष्प धूप दीपादिककरि पूजते हैं, सो भावनामात्र है, तिसकरि तिनको संकल्परचित फलकी प्राप्ति होती हैं, सो बालक