पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/९२१

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{ १८०२) योगवासिष्ठ । करते भी दृष्ट आते हैं, परंतु उनके निश्चयविषे कर्तृत्वका अभिमान कछु नहीं फुरता, सदा परम ध्यानविषे स्थित हैं, जैसे पत्थरकी शिला होती है, तिसविषे स्पंद कछु नहीं हुरता, तैसे उनको कछु कर्तृत्वबुद्धि नहीं फुरती. काहेते कि, दृश्यविषे उनका अहंकार देहाभिमान निवृत्त भयो हैं, स्वस्वरूप चिन्मात्रविषे स्थिति पाई है, सो कैसा आत्मपद है, परम शतरूप है, द्वैतकलनाते रहित एक है, ऐसा जो पद है, सो ज्ञानवान् आत्मताकारकै जानता है, तिसको निर्वाण कहते हैं, तिसको मोक्ष कहते हैं ॥ हे रामजी । ऐसा जो पद है, तिसविषे हम सदा स्थित हैं, अरु ब्रह्मा विष्णुते आदि लेकर जो ज्ञानवान् पुरुषहैं सो तिसी पदविषे स्थित हैं, नानाप्रकारके चेष्टा करते भी दृष्ट आते हैं, परंतु सदा शाँतरूप हैं, तिनको क्रिया अरु समाधिविषे एकही आत्मनिश्चय रहता है, जैसे वायु स्पंदविषे एकही है, तरंग अरु ठहरायेविषे जल यही है, तैसे ज्ञानी दोनों विषे सम है, जैसे आकाशरूप अरु शून्यताविषे भेद नहीं, तैसे आत्मा अरु जगविषे भेद नहीं ॥ राम उवाच ॥ हे भगवन् । तुम्हारी कृपाते मुझको कलना कोऊ नहीं फुरती, ब्रह्मा विष्णु रुद्रते आदि लेकर जेता कछु जगत है, सो सब आकाशरूप मुझको भासता है, सर्वदा काल सर्व प्रकार मैं अपने आपविषे स्थित हौं, अच्युत अरु अद्वैत रूप हौं, मेरै विषे जगतुकी कलना कोऊ नहीं,चित्त संवेदनद्वारा मैंही जगवरूप हो भासता हौं, अरु स्वरूपते कदाचित् चलायमान नहीं भया, अचेत चिन्मात्र स्वरूप हौं, अपने आपते इतर मुझको कछु नहीं भासता॥ वसिष्ठउवाच ॥ हे रामजी ! मैं जानता हौं कि, तू जागा है; परंतु अपने दृढ बोधके निमित्त मुझसों बहुरि प्रश्न करु कि, यह जगत् है नहीं, तौ भासता क्यों है ॥ राम उवाच ॥ हे भगवन् ! मैं तुमसों तब पूछौं,जो जगत् आकार मुझको भासता होवै, सो मुझको जगत् कछु भासता नहीं, जैसे संकल्पके अभाव हुये संकल्पकी चेष्टा नहीं भासती, जैसे बाजीगरकी मायाका अभाव हुये बाजी नहीं भासती, जैसे स्वप्नके अभाव हुये स्वप्नसृष्टि नहीं भासती, जैसे भविष्यत्कथाके पुरुष नहीं भासते तैसे मुझको जगत् नहीं भासता, बहुरि संशय किसका उठाव, आदि जो चित्तसंवेदन फुरी है, सो विराइपुरु