पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/९२२

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रामविश्रांतिवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तराई ३. (१८०३) होकार स्थित भया है,तिसने आगे देश काल पदार्थरचे हैं, अरुस्थावर जंगम जगदको रचा है, तिसके समष्टि वपुका नाम विराट् है, जैसे स्वप्नका पर्वत होवे, तैसे यह विराट् पुरुष है, बहुरि कैसा विराट् है, जो आप आकाशरूप है, जो आपही आकाश रूप है, तिसका रचाजगत् मैं क्यों पूछौं, जैसे स्वप्नकी मृत्तिकाही आकाशरूप है, अर्थ यह जो उपजी अनउपजी है, तिसके पात्रका मैं क्यों पूछौं, ताते न कोऊ विराट् है, न तिसका जगत् है, मिथ्याही विराट् है, मिथ्याही तिसकी चेष्टा है, केवल आत्मसत्ता अपने आपविषे स्थित है, न कोऊ जगत् है, न कोऊ तिसका विराट् हैं, जैसे स्वप्नका पर्वत आभासमात्र होता है, तैसे यह जगत् आकार भासता है, जैसे बीजते वृक्ष होता है, जैसे ब्रह्मते जगत् प्रगट हुआ है। यह भी कैसे कहिये, बीज साकार होता है, तिसविषे वृक्षका सद्भाव रहता है, वही परिणामी करिकै वृक्ष होता है, आत्मा ऐसे कैसे होवे, आत्मा तौ निराकार है, तिसविषे जगदका होना नहीं, काहेते कि, जो निर्विकार है, अरु अद्वैत है, निर्वेद है, तिसको जगत्का कारण कैसे कहिये, न कोऊ जाग्रत है, न स्वप्न है, न सुषुप्ति है, यह अवस्था भी आकाशमात्र है, परिणामभावको नहीं प्राप्त भया, सदा अपने आपविषे स्थित है॥ हे मुनीश्वर! मैं तू भी आकाशरूप हैं, आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी सब आकाशरूप हैं, अब सर्व आत्माही मुझको भासता है। हे मुनीश्वर ! एक सविकल्प ज्ञान है, एक निर्विकल्प ज्ञानहै, सो आका शवत् अचैत्य चिन्मात्र है, चैत्य जो दृश्य है, तिसके संबंधते रहित है,सो आकाशवत निर्मल जान, सो निर्विकल्पज्ञान है, जिनको यह ज्ञान प्राप्त भया है, सो महापुरुष है, तिसको मेरा नमस्कार है, अरु जिसको दृश्यका संयोग है. सो सविकल्प ज्ञान जीवको होता है, संसारी है, तिसको भिन्न भिन्न जगत् विषमता सहित भासता है, परंतु वही भिन्न कछु नहीं, जैसे समुद्रविषे नानाप्रकारके तरंग भासते हैं तो भी जलस्वरूप हैं, तैसे भिन्न भिन्न जीव अरु तिनका ज्ञान है, तो भी मुझको अपना आपही भासता है, जैसे अवयवीको सब अंग अपनेही भासते हैं, तैसे