पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/९२३

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( १८०४) योगवासिष्ठ । सर्वं जगत् अपना आपही केवल अद्वैतरूप भासता है, जगतकी कलना कोऊ नहीं फुरती, जैसे स्वप्नते जागेको स्वप्नसृष्टि नहीं फुरती, कल्पनाते रहित अपना आपही अद्वैत भासता है; तैसे मुझको जगत् कल्पनाते रहित अपना आपही भासता हैं । हे मुनीश्वर ! आगमते लेकर जो शास्त्र हैं, तिनते उल्लंधि वचन मैं कहे हैं, परंतु जो मेरे हृदयविषे हैं, सोई कहे हैं, जो कछु अंतर होता है, सोई बाह्य प्रगट वाणीकार कहता है, जैसे जो बीज बोता हैं, सोई अंकुर निकसता है, बीजविना अंकुर नहीं निकसता, तैसे जो कछु मेरे हृदयविषे है, सोई वाणीकार कहता है, अरु यह विद्या सर्व प्रमाणकारि सिद्ध हैं ॥ हे मुनीश्वर ! जिसको यह दशा प्राप्त हैं, सोई जानता हैं, अपर कोऊनहीं जान सकता, अरु जिसने मद्यपान किया हैं, सोई उन्मत्तताको जानता है, अफ्र कोङ नहीं जान सकता, तैसे जो ज्ञानवान् है, सोई आत्मरसको जानता है; अपर कोऊ नहीं जानता, सो कैसा आत्मरस है, जिसके पियेते बहुरि कोई कल्पना नहीं रहती ॥ हे मुनीश्वर! मैं आत्मा अजन्मा अविनाशी अरु परम शतरूप हौं, उभय एककी कल्पनाते रहित अचेत चिन्मात्र हौं, अरु जगरूप हुएकी नांई भी मैं भासता हौं, अरु निराभास हौं, मेरेविषे आभास भी कोऊ वस्तु नहीं, काहेते कि निराकार हौं इसप्रकार मैं अपने आपको यथार्थ चिन्मात्र जाना है ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे रामविश्रीतिवर्णनं नाम द्विशताधिकषटूसप्ततितमः सर्गः ॥ २७६ ॥ दिशताधिकसप्तसप्ततितमः सर्गः २७७, चिंतामणिप्राप्तिवर्णनम् । वाल्मीकिरुवाच ॥ हे भारद्वाज । इसप्रकार रामजी कहिकार एक मुहूर्तपर्यंत तूष्णीं होगया. अर्थ यह कि परमात्मापदविषे विश्रांतिको